श्री नानक देव जी को प्रभु मिले

स्मस्मबेद बोध पृष्ठ 158 से 159 पर

श्री नानक देव जी को शरण में लेने का प्रकरण है।

अथ नानक शाह जी की कथा-चौपाई

नानकशाह कीन तप भारी। सब विधि भये ज्ञान अधिकारी।।
भक्ति भाव ताको लखियाया पाया। तापर सतगुरू कीनो दाया।।
जिंदा रूप धरयो हम जाई। जिन्दा रूप पंजाब देश चलि आई।।
अनहद बानी कियौ पुकारा। सुनिकै नानक दरश निहारा।।
सुनिके अमर लोक की बानी। जानि परा निज समरथ ज्ञानी।।

नानक वचन

आवा पुरूष महागुरू ज्ञानी। अमरलोककी सुनी न बानी।।
अर्ज सुनो प्रभु जिंदा स्वामी। कहँ अमरलोक रहा निजु धामी।।
काहु न कही अमर निजुबानी। धन्य कबीर परमगुरू ज्ञानी।।
कोई न पावै तुमरो भेदा। खोज थके ब्रह्मा चहुँ वेदा।।

जिन्दा वचन

जब नानक बहुतै तप कीना। निरंकार बहुते दिन चीन्हा।।
निरंकारते पुरूष निनारा। अजर द्वीप ताकी टकसारा।। पुरूष बिछोह भयौ तुव जबते। काल कठिन मग रोंक्यौ तबते।।
इत तुव सरिस भक्त नहिं होई। क्योंकि परपुरूष न भेटेंउ कोई।।
जबते हमते बिछुरे भाई। साठि हजार भल जन्म तुम पाई।।
धरि धरि जन्म भक्ति भलकीना। फिर काल चक्र निरंजन दीना।।
गहु मम शब्द तो उतरो पारा। बिन सतशब्द लहै यम द्वारा।।
तुम बड़ भक्त भवसागर आवा। और जीव को कौन चलावा।।
निरंकार सब सृष्टि भुलावा। तुम करि भक्ति लौटि क्यों आवा।।

नानक वचन

धन्य पुरूष तुम यह पद भाखी। यह पद अमर गुप्त कह राखी।।
जबलों हम तुमको नहिं पावा। अगम अपार भर्म फैलावा।।
कहो गोसाँई हमते ज्ञाना। परमपुरूष हम तुमको जाना।।
धनि जिंदा प्रभु पुरूष पुराना। बिरले जन तुमको पहिचाना।।

जिन्दा वचन

भये दयाल पुरूष गुरू ज्ञानी। गहो पान परवाना बानी।।
भली भई तुम हमको पावा। सकलो पंथ काल को धावा।।
तुम इतने अब भये निनारा। फेरि जन्म ना होय तुम्हारा।।
भली सुरति तुम हमको चीन्हा। अमरमंत्र हम तुमको दीन्हा।।
स्वसमवेद हम कहि निज बानी। परमपुरूष गति तुम्हैं बखानी।।

नानक वचन

धन्य पुरूष ज्ञानी करतारा। जीवकाज प्रकटे संसारा।।
धनि करता तुम बंदी छोरा। ज्ञान तुम्हार महा बल जोरा।।
दिया नाम दान गुरू किया उबारा। नानक अमरलोक पग धारा।।

इति

चौपाई

यहि विधि नानक गुरू पद गहेऊ। शिष शाखा तेहि जग में रहेऊ।।
गुरूपद तजि बहु पंथ चलाये। अन्य देवकी सेव गहाये।।
परमपुरूष पद नहिं पहिचाना। भांति अनेक बनायो बाना।।
अजहूँ गुरू की तीन निशानी। गहै कछुक गुरू की निज बानी।।
द्वितिये सत्यनाम की साका। तृतिये देखा श्वेत पताका।।
खत्री कुल नानक तन धारी। ताको सुयश गाव संसारी।।

इति

पृष्ठ 160 से केवल

‘‘अथ कबीर आचार वर्णन चौपाई‘‘:-

सत्यनाम की सेवा धारा। सुमिरण ध्यान नाम निरधारा।।
सतगुरू वर्णन प्रीति सुहाये। मूरति को नहिं शीस नवाये।।
तीरथ व्रत मूरति भ्रमजाला। सत्य भक्ति गहिये सत चाला।।
निरगुण सरगुण को तजि दीजै। सत्य पुरूष की भक्ति गहीजै।।
संत गुरू की सेवा धारे। तन मन धन अर्पण करि डारे।।
कोटिन तीर्थ गुरू के चरना। संशय शोक दोष सब हरना।।
दुखी दीन देखत दुख लागा। परमारथ पथ तन धन त्यागा।।
गृही साधु दोउ एक समाना। परमदयाल दोहू को बाना।।
मद्य मांस भष जग में जोई। महा मलीन जानिये सोई।।
परम दया सब जिव पर पालौ। अधो दृष्टि मारग में चालौ।।
हिंसा कर्म जेते जगमांही। ताके कबहूँ निकट न जाहीं।।
सब जीवन की कर रखवाली। जीव घात कहुँ बात न चाली।।
वर्षा ऋतु जब जिव अधिकारा। तब नहिं कबहुं पंथ पग धारा।।

अगम निगम बोध के पृष्ठ 44 पर नानक जी का शब्द है:-

‘‘वाह-वाह कबीर गुरू पूरा है‘‘

शब्द

वाह-वाह कबीर गुरू पूरा है।(टेक)
पूरे गुरू की मैं बली जाऊँ जाका सकल जहूरा है।
अधर दुलीचे परे गुरूवन के, शिव ब्रह्मा जहाँ शूरा है।
श्वेत ध्वजा फरकत गुरूवन की, बाजत अनहद तूरा है।
पूर्ण कबीर सकल घट दरशै, हरदम हाल हजूरा है।
नाम कबीर जपै बड़भागी, नानक चरण को धूरा है।

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