पीपा राजा की कथा

वाणी नं. 109: गरीब, पीपा कूं परचा हुवा, मिले भगत भगवान। सीता सुधि साबित रहै, द्वारामती निधान ।।109।।

वाणी नं. 109 का सरलार्थ:-

पीपा राजा का वैराग्य

कथा:- राजस्थान में गीगनौर नामक शहर में राजपूत राजा पीपा ठाकुर राज्य करता था। (गीगनौर का वर्तमान नाम नागौर है।) उसकी तीन रानियाँ थी। पटरानी (मुख्य पत्नी) का नाम सीता था। काशी नगर (उत्तर प्रदेश) में आचार्य रामानंद जी रहते थे। वे कबीर परमेश्वर जी की लीला तथा यथार्थ ज्ञान जानकर उनसे प्राप्त ज्ञान का प्रचार किया करते थे। मण्डली बनाकर चलते थे।

एक बार स्वामी रामानंद जी गीगनौर शहर में चले गए। राजा को पता चला कि स्वामी रामानंद आचार्य जी आए हैं। उनका नाम बहुत प्रसिद्ध था। राजा पीपा जी देवी दुर्गा के परम भक्त थे। माता को ही सर्वोच्च शक्ति मानते थे। राज्य में सुख माता जी के आशीर्वाद से ही मानते थे। राजा को पता चला कि स्वामी रामानंद जी माता दुर्गा से ऊपर परमात्मा बताते हैं और कहते हैं कि माता दुर्गा की शक्ति से जन्म-मरण तथा चैरासी लाख प्राणियों के शरीरों में कष्ट उठाना समाप्त नहीं हो सकता। राजा को यह सुनकर अच्छा नहीं लगा। राजा ने स्वामी जी को अपने घर बुलाकर पूछा कि आप कहते हो कि दुर्गा देवी जी से ऊपर अन्य परम प्रभु है। माता की पूजा से जन्म-मरण, चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों में भ्रमण सदा बना रहेगा। जन्म-मरण तथा चैरासी लाख प्रकार की योनियों वाला कष्ट पूर्ण परमात्मा की भक्ति के बिना समाप्त नहीं हो सकता। राजा ने बताया कि मैं प्रत्येक अमावस्या को माता का जागरण करवाता हूँ, भण्डारा करता हूँ। माता मुझे प्रत्यक्ष दर्शन देती है। मुझसे बातें करती है। स्वामी रामानंद जी ने कहा कि आप माता से ही स्पष्ट कर लेना। हम छः महीने के पश्चात् फिर इस ओर आएँगे, तब आप से भी मिलेंगे। स्वामी जी चले गए। अगली अमावस्या को राजा ने जागरण कराया। माता ने दर्शन दिए। राजा ने प्रश्न किया कि हे माता! आप मेरा जन्म-मरण तथा चैरासी लाख प्राणियों के शरीरों में कष्ट उठाना समाप्त कर दें। श्री देवी दुर्गा जी ने कहा कि राजन! तेरे राज्य में सुख माँग ले। राज्य विस्तार माँग ले। वह सब कर दूँगी, परंतु जन्म-मरण तथा चैरासी लाख वाला कष्ट समाप्त करना मेरे बस से बाहर है। यह कहकर माता अंतध्र्यान हो गई। राजा पीपा ठाकुर बेचैन हो गया कि यदि जन्म-मरण समाप्त नहीं हुआ तो भक्ति का क्या लाभ? स्वामी जी कब आएँगे? छः महीने तो बहुत लंबा समय है।

पीपा हाथी पर सवार होकर स्वामी रामानन्द से मिलने के लिए काशी उनके आश्रम में गया था। द्वारपाल से कहा था कि स्वामी जी से कहो, पीपा राजा मिलने आया है। स्वामी जी ने कहा कि मैं राजाओं से नहीं मिलता, भक्त-दासों से मिलता हूँ। राजा को जवाब मिला तो उसी समय हाथी, सोने का मुकुट आदि बेचकर आश्रम आया और कहा कि एक पापी दास गीगनौर से स्वामी जी से मिलने आया है। स्वामी जी बड़े प्रसन्न हुए। पीपा ने कहा था कि मैं अब आपके पास ही जीवन बिताऊँगा। स्वामी जी ने कहा कि आप अपने घर जाओ, मैं शीघ्र आऊँगा। घर से आपको ठीक से वैरागी बनाकर लाऊँगा। स्वामी जी को पता था कि कुछ दिन बाद रानी आएगी। यहाँ पर हाहाकार मचाएगी। इसलिए उनके सामने ही सन्यास देना उचित समझा था। स्वामी रामानंद जी एक महीने के पश्चात् ही आ गए। राजा पीपा ने स्वामी जी को गुरू धारण किया। राज्य त्यागकर उनके साथ काशी चलने का आग्रह किया। राजा के साथ तीनों रानियों ने भी घर त्यागकर सन्यास लेने को कहा। राजा को चिंता हुई। गुरू जी को बताया कि ये अब तो उमंग में भरी हैं, परंतु रूखा-सूखा खाना, धरती पर सोना, अन्य समस्याओ को झेल न सकेंगी। मेरी भक्ति में भी बाधा करेंगी। स्वामी रामानंद ने कहा कि मैं इस समस्या का समाधान करता हूँ। उनसे कहो कि तीनों रानियाँ अपने-अपने गहने घर पर छोड़कर हमारे साथ चलें। सीता ने तो अपने आभूषण त्याग दिये। दो ने कहा कि हम आभूषण नहीं त्याग सकती। राजा ने कहा कि सीता भी तो बाधा बनेगी। स्वामी जी ने कहा कि सीता! आपको निःवस्त्रा (नंगी) होकर हमारे साथ रहना होगा। सीता ने कहा, स्वामी जी! अभी वस्त्रा उतार देती हूँ। यह कहकर कपड़ों के बटन खोलने लगी। स्वामी रामानंद जी ने कहा कि बेटी बस कर। ये तेरी परीक्षा थी, तू सफल हुई। स्वामी जी ने कहा कि पीपा जी! आप सीता को साथ ले लो। यह आपकी साधना में कोई बाधा नहीं करेगी। उपरोक्त विधि से पीपा जी तथा सीता जी को साथ लाए थे। दोनों ने काशी में रहकर भक्ति की। जैसा मिला, खाया। जैसा वस्त्र मिला, पहना और श्रद्धा से भक्ति करने लगे।

पीपा-सीता सात दिन दरिया में रहे और फिर बाहर आए

भक्त पीपा और सीता सत्संग में सुना करते कि भगवान श्री कृष्ण जी की द्वारिका नगरी समन्दर में समा गई थी। सब महल भी समुद्र में आज भी विद्यमान हैं। बड़ी सुंदर नगरी थी। भगवान श्री कृष्ण जी के स्वर्ग जाने के कुछ समय उपरांत समुद्र ने उस पवित्र नगरी को अपने अंदर समा लिया था। एक दिन पीपा तथा सीता जी गंगा दरिया के किनारे काशी से लगभग चार-पाँच किमी. दूर चले गए। वहाँ एक द्वारिका नाम का आश्रम था। आश्रम से कुछ दूर एक वृक्ष के नीचे एक पाली बैठा था। उसके पास उसी वृक्ष के नीचे बैठकर दोनों चर्चा करने लगे कि भगवान कृष्ण जी की द्वारिका जल में है। पानी के अंदर है। पता नहीं कहाँ पर है? कोई सही स्थान बता दे तो हम भगवान के दर्शन कर लें। पाली ने सब बातें सुनी और बोला कौन-सी नगरी की बातें कर रहे हो? उन्होंने कहा कि द्वारिका की। पाली ने कहा वह सामने द्वारिका आश्रम है। पीपा-सीता ने कहा, यह नहीं, जिसमें भगवान कृष्ण जी तथा उनकी पत्नी व ग्वाल-गोपियाँ रहती थी। पाली ने कहा, अरे! वह नगरी तो इसी दरिया के जल में है। यहाँ से 100 फुट आगे जाओ। वहाँ नीचे जल में द्वारिका नगरी है। संत भोले तथा विश्वासी होते हैं। स्वामी रामानंद जी प्रचार के लिए 15 दिन के लिए आश्रम से बाहर गए थे। दोनों पीपा तथा सीता ने विचार किया कि जब तक गुरू जी प्रचार से लौटेंगे, तब तक हम भगवान की द्वारिका देख आते हैं। दोनों की एक राय बन गई। उठकर उस स्थान पर जाकर दरिया में छलाँग लगा दी। आसपास खेतों में किसान काम कर रहे थे। उन्होंने देखा कि दो स्त्राी-पुरूष दरिया में कूद गए हैं। आत्महत्या कर ली है। सब दौड़कर दरिया के किनारे आए। पाली से पूछा कि क्या कारण हुआ? ये दोनों मर गए, आत्महत्या क्यों कर ली? पाली ने सब बात बताई। कहा कि मैंने तो मजाक किया था कि दरिया के अंदर भगवान की द्वारिका नगरी है। इन्होंने दरिया में द्वारिका देखने के लिए प्रवेश ही कर दिया। छलांग लगा दी। बड़ी आयु के व्यक्तियों ने कहा कि आपने गलत किया, आपको पाप लगेगा। भक्त तो बहुत सीधे-साधे होते हैं। सब अपने-अपने काम में लग गए। यह बात आसपास गाँव तथा काशी में आग की तरह फैल गई। काशी के व्यक्ति जानते थे कि वे राजा-रानी थे, मर गए। परमात्मा ने भक्तों का शुद्ध हृदय देखकर उस दरिया में द्वारिका की रचना कर दी। श्री कृष्ण तथा रूकमणि आदि-आदि सब रानियाँ, ग्वाल, बाल गोपियाँ सब उपस्थित थे। भगवान श्री कृष्ण रूप में विद्यमान थे। सात दिन तक दोनों द्वारिका में रहे। चलते समय श्री कृष्ण रूप में विराजमान परमात्मा ने अपनी ऊँगली से अपनी अंगूठी (छाप) निकालकर भक्त पीपा जी की ऊँगली में डाल दी जिस पर कृष्ण लिखा था। सातवें दिन उसी समय दिन के लगभग 11रू00 बजे दरिया से उसी स्थान से निकले। कपड़े सूखे थे। दोनों दरिया किनारे खड़े होकर चर्चा करने लगे कि अब कई दिन यहाँ दिल नहीं लगेगा। खेतों में कार्य कर रहे किसानों ने देखा कि ये तो वही भक्त-भक्तनी हैं जिन्होंने दरिया में छलाँग लगाई थी। आसपास के वे ही किसान फिर से उनके पास दौड़े-दौड़े आए और कहने लगे कि आप तो दरिया में डूब गए थे। जिन्दा कैसे बचे हो? सातवें दिन बाहर आए हो, कैसे जीवित रहे? दोनों ने बताया कि हम भगवान श्री कृष्ण जी के पास द्वारिका में रहे थे। उनके साथ खाना खाया। रूकमणि जी ने अपने हाथ से खाना बनाकर खिलाया। वे बहुत अच्छी हैं। भगवान श्री कृष्ण भी बहुत अच्छे हैं। देखो! भगवान ने छाप (अंगूठी) दी है। इस पर उनका नाम लिखा है। यह सब बातें सुनकर सब आश्चर्य कर रहे थे। यह बात भी आसपास के क्षेत्र तथा काशी में फैल गई। सब उनको देखने तथा भगवान द्वारा दी गई छाप को देखने, उसको मस्तिक से लगाने आने लगे। स्वामी रामानन्द जी के आश्रम में मेला-सा लग गया। स्वामी जी भी उसी दिन प्रचार से लौटे थे। उन्होंने यह समाचार सुना तो हैरान थे। छाप देखकर तो सब कोई विश्वास करता था। वैसी छाप (अंगूठी) पृथ्वी पर नहीं थी। उस अंगूठी को एक पुराने श्री विष्णु के मंदिर में रखा गया। कुछ साधु कहते हैं कि वह अंगूठी वर्तमान में भी उस मंदिर में रखी है। वाणी नं. 109 का यही सरलार्थ है कि पीपा जी को परचा (परिचय अर्थात् चमत्कार) हुआ। भगवान तथा भक्त मिले, आपस में चर्चा हुई। सीता सुधि (सीता सहित) साबुत (सुरक्षित) रहे। द्वारामति (द्वारिका नगरी) निधान यानि वास्तव में अर्थात् यह बात सत्य है।

विशेष:– यही कहा जाता है कि भक्त पीपा व सीता दोनों स्वामी जी से आज्ञा लेकर वर्तमान द्वारका नगरी में गए थे। यह घटना वहाँ पर समुद्र में घटी थी। जो भी है, हमने भक्त की आस्था व विश्वास देखना है। उसी तरह अनुसरण करना है। तब ही परमात्मा मिलेगा।

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