धर्मदास जी को सतलोक में ले जाना

छः महीने तक परमेश्वर जिन्दा नहीं आए। धर्मदास रो-रो अकुलाए, खाना नाममात्र रह गया। दिन में कई-कई बार घण्टों रोना। शरीर सूखकर काँटा हो गया। एक दिन धर्मदास जी से आमिनी देवी ने पूछा कि हे स्वामी! आपकी यह हालत मुझ से देखी नहीं जा रही है। आप विश्वास रखो, जब पहले कितनी बार आए हैं तो अबकी बार भी आऐंगे। धर्मदास ने कहा कि इतना समय पहले कभी नहीं लगाया। लगता है मुझ पापी से बहुत नाराज हो गए हैं, बात भी नाराजगी की है। मैं महामूर्ख हूँ आमिनी देवी! अब मुझे उनकी कीमत का पता चला है। भोले-भाले नजर आते हैं, वे परमात्मा के विशेष कृपा पात्र हैं। इतना ज्ञान देखा न सुना। आमिनी ने पूछा कि उन्होंने बताया हो कि वे कैसे-कैसे मिलते हैं, कहाँ-कहाँ जाते हैं? धर्मदास जी ने कहा कि वे कह रहे थे कि मैं वहाँ अवश्य जाता हूँ जहाँ पर धर्म-भण्डारे (लंगर) होते हैं। वहाँ लोगों को ज्ञान समझाता हूँ। आमिनी देवी ने कहा कि आप भण्डारा कर दो। हो सकता है कि जिन्दा बाबा आ जाए। धर्मदास जी बोले कि मैं तो तीन दिन का भण्डारा करुँगा। आमिनी देवी पहले तो कंजूसी करती थी। धर्मदास तीन दिन का भण्डारा कहता था तो वह एक दिन पर अड़ जाती थी। परन्तु उस दिन आमिनी ने तुरन्त हाँ कर दी कि कोई बात नहीं आप तीन दिन का भण्डारा करो। धर्मदास जी ने दूर-दूर तक तीन दिन के भोजन-भण्डारे का संदेश भिजवा दिया। साधुओं का निमन्त्राण भिजवा दिया। निश्चित दिन को भण्डारा प्रारम्भ हो गया। दो दिन बीत गए। साधु-महात्मा आए, ज्ञान चर्चा होती रही। परन्तु जो ज्ञान जिन्दा बाबा ने बताया था। उसका उत्तर किसी के पास नहीं पाया। धर्मदास जी जान-बूझकर साधुओं से प्रश्न करते थे कि क्या ब्रह्मा, विष्णु, शिव का भी जन्म होता है। उत्तर वही घिसा-पिटा मिलता कि इनके कोई माता-पिता नहीं हैं। इससे धर्मदास को स्पष्ट हो जाता कि वह जिन्दा महात्मा नहीं आया है। वेश बदलकर आता तो भी ज्ञान तो सही बताता। तीसरे दिन भी दो पहर तक में जिन्दा बाबा नहीं आए। धर्मदास जी ने दृढ़ निश्चय करके कहा कि यदि आज जिन्दा बाबा नहीं आए तो मैं आत्महत्या करुँगा, ऐसे जीवन से मरना भला। परमात्मा तो अन्तर्यामी हैं। जान गए कि आज भक्त पक्का मरेगा। उसी समय कुछ दूरी पर कंदब का पेड़ था। उसके नीचे उसी जिन्दा वाली वेशभूषा में बैठे धर्मदास को दिखाई दिए। धर्मदास दौड़कर गया, ध्यानपूर्वक देखा, जिन्दा महात्मा के गले से लग गया। अपनी गलती की क्षमा माँगी। कभी ऐसी गलती न करने का बार-बार वचन किया। तब परमात्मा धर्मदास के घर में गए। आमिनी तथा धर्मदास दोनों ने बहुत सेवा की, दोनों ने दीक्षा ली। परमात्मा ने जिन्दा रुप में उनको प्रथम मन्त्रा की दीक्षा दी। कुछ दिन परमेश्वर उनके बाग में रहे। फिर एक दिन धर्मदास ने ऐसी ही गलती कर दी, परमात्मा अचानक गायब हो गए। धर्मदास जी ने अपनी गलती को घना (बहुत) महसूस किया। खाना-पीना त्याग दिया, प्रतिज्ञा कर ली कि जब तक दर्शन नहीं दोगे, पीना-खाना बन्द। धर्मदास शरीर से बहुत दुर्बल हो गए। उठा-बैठा भी नहीं जाता था। छठे दिन परमात्मा आए। धर्मदास को अपने हाथों उठाकर गले से लगाया। अपने हाथों खाना खिलाया। धर्मदास ने पहले चरण धोकर चरणामृत लिया। फिर ज्ञान चर्चा शुरु हुई। धर्मदास जी ने पूछा कि आप जी को इतना ज्ञान कैसे हुआ?

परमेश्वर जी ने कहा कि मुझे सतगुरु मिले हैं। वे काशी शहर में रहते हैं। उनका नाम कबीर है। वे तो स्वयं परमेश्वर हैं। सतगुरु का रुप बनाकर लीला कर रहे हैं, जुलाहे का कार्य करते हैं। उन्होंने मुझे सतलोक दिखाया, वह लोक सबसे न्यारा है। वहाँ जो सुख है, वह स्वर्ग में भी नहीं है। सदाबहार फलदार वृक्ष, सुन्दर बाग, दूध की नदियाँ बहती हैं। सुन्दर नर-नारी रहते हैं। वे कभी वृद्ध नहीं होते। कभी मृत्यु नहीं होती। जो सतगुरु से तत्वज्ञान सुनकर सत्यनाम की प्राप्ति करके भक्ति करता है, वह उस परमधाम को प्राप्त करता है। इसी का वर्णन गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में भी है। धर्मदास जी ने हठ करके कहा कि हे महाराज! मुझे वह अमर लोक दिखाने की कृपा करें ताकि मेरा विश्वास दृढ़ हो। परमेश्वर जी ने कहा कि आप भक्ति करो। जब शरीर त्यागकर जाएगा तो उस लोक को प्राप्त करेगा। धर्मदास जी के अधिक आग्रह करने पर परमेश्वर जिन्दा ने कहा कि चलो आपको सत्यलोक ले चलता हूँ। धर्मदास की आत्मा को निकालकर ऊपर सत्यलोक में ले गए। परमेश्वर के दरबार के द्वार पर एक सन्त्राी खड़ा था। जिन्दा बाबा के रुप में खड़े परमेश्वर ने द्वारपाल से कहा कि धर्मदास को परमेश्वर के दर्शन कराकर लाओ। द्वारपाल ने एक अन्य हंस (सतलोक में भक्त को हंस कहते हैं) से कहा कि धर्मदास को परमेश्वर के सिंहासन के पास ले जाओ, सत्यपुरुष के दर्शन कराकर लाओ। वहाँ पर बहुत सारे हंस (भक्त) तथा हंसनी (नारी-भक्तमति) इकट्ठे होकर नाचते-गाते धर्मदास जी को सम्मान के साथ लेकर चले। सब हंसों तथा नारियों ने गले में सुन्दर मालाएं पहन रखी थी। उनके शरीर का प्रकाश 16 सूर्यों के समान था। जब धर्मदास जी ने तख्त (सिंहासन) पर बैठे सत्य पुरुष जी को देखा तो वही स्वरुप था जो धरती पर जिन्दा बाबा के रुप में था। परन्तु यहाँं पर परमेश्वर के एक रोम (शरीर के बाल) का प्रकाश करोड़ सूर्यों तथा करोड़ चन्द्रमा के प्रकाश से भी कहीं अधिक था। जिन्दा रूप में नीचे से गए परमात्मा तख्त पर विराजमान अपने ही दूसरे स्वरूप पर चँवर करने लगा। धर्मदास ने सोचा कि जिन्दा तो इस परमेश्वर का सेवक होगा। परन्तु सूरत मिलती-जुलती है। कुछ देर में तख्त पर बैठा परमात्मा खड़ा हुआ तथा जिन्दा सिंहासन पर बैठ गया। तेजोमय शरीर वाले प्रभु जिन्दा के शरीर में समा गया। धर्मदास शर्म के मारे पानी-पानी हो गया। अपने आपको कोसने लगा कि मैं कैसा दुष्ट हूँ। मैंने परमेश्वर को कितना दुःखी किया, कितना अपमानित किया। मुझे वहाँ विश्वास नहीं हुआ। जब दर्शन कराकर सतलोक के भक्त वापिस लाए। तीन दिन तक परमात्मा के सत्यलोक में रहा। उधर से धर्मदास को तीन दिन से अचेत देखकर घर, गाँव तथा रिश्तेदार व मित्र बान्धवगढ़ में धर्मदास जी के घर पर इकट्ठे हो गए। कोई झाड़-फूँक करा रहा था। कोई वैध से उपचार करा रहा था, परन्तु सब उपाय व्यर्थ हो चुके थे। किसी को आशा नहीं रही थी कि धर्मदास जिन्दा हो जाएगा। तीसरे दिन परमात्मा ने उसकी आत्मा को शरीर में प्रवेश कर दिया। धर्मदास जी को उस बाग से उठाकर घर ले गए थे। जहाँ से परमात्मा उसको सत्यलोक लेकर गए थे। धर्मदास सचेत हो गया था। धर्मदास जी सचेत होते ही उस बाग में उसी स्थान पर गए तो वही परमात्मा जिन्दा बाबा के रुप में बैठे थे। धर्मदास जी चरणों में गिर गए और कहने लगे हे प्रभु! मुझ अज्ञानी को क्षमा करो प्रभु!:-

‘‘अवगुण मेरे बाप जी, बख्सो गरीब निवाज’’।
जो मैं पूत कुपुत हूँ, बहुर पिता को लाज’’

मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि आप परमात्मा हैं, आप परम अक्षर ब्रह्म हैं। कभी-कभी आत्मा तो कहती थी कि पूर्ण ब्रह्म के बिना ऐसा ज्ञान पृथ्वी पर कौन सुना सकता है, परन्तु मन तुरन्त विपरीत विचार खड़े कर देता था। हे सत्य पुरुष! आपने अपने शरीर की वह शोभा जो सत्यलोक में है, यहाँ क्यों प्रकट नहीं कर रखी?

परमेश्वर जी ने कहा कि धर्मदास! यदि मैं उसी प्रकाशयुक्त शरीर से इस काल लोक में आ जाऊँ तो क्षर पुरुष (ज्योति निरंजन भी इसी को कहते हैं) व्याकुल हो जाए। मैं अपना सर्व कार्य गुप्त करता हूँ। यह मुझे एक सिद्धी वाला सन्त मानता है। लेकिन इसको यह नहीं मालूम कि मैं कहाँ से आया हूँ? कौन हूँ? परमेश्वर ने धर्मदास से प्रश्न किया कि आपको कैसा लगा मेरा देश? धर्मदास बोले कि हे परमेश्वर इस संसार में अब मन नहीं लग रहा। उस पवित्र स्थान के सामने तो यह काल का सम्पूर्ण लोक (21 ब्रह्माण्डों का क्षेत्र) नरक के समान लग रहा है। जन्म-मरण यहाँ का अटल विधान है। चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों के जीवन भोगना भी अनिवार्य है। प्रत्येक प्राणी इसी आशा को लेकर जीवित है कि अभी नहीं मरुंगा परन्तु फिर भी कभी भी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। प्रत्येक प्राणी एक-दूसरे से कपट से बातें करता है। लेकिन आप के सत्यलोक में सब व्यक्ति प्यार से बातें करते हैं। निष्कपट व्यवहार करते हैं। मैंने तीनों दिन यही जाँच की थी। यदि धर्मदास जी अपने घर पर उपस्थित स्वजनों को न देखते जो उस के अचेत होने के साक्षी थे तो समझते कि कोई स्वप्न देखा होगा। परन्तु अब दृढ़ निश्चय हो गया था।

(उपरोक्त वर्णन पवित्र कबीर सागर अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ पृष्ठ 57-58 पर, ‘‘मोहम्मद बोध’’ पृष्ठ 20-21 पर, दश मुकामी रेखता ‘‘ज्ञान स्थिति बोध’’ पृष्ठ 83 पर, ‘‘अमर मूल’’ पृष्ठ 202 पर। )

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