मानव जीवन की आम धारणा
जब तक यथार्थ आध्यात्मिक ज्ञान नहीं होता तो जन-साधारण की धारणा होती है कि:-
बड़ा होकर पढ़-लिखकर अपने निर्वाह की खोज करके विवाह कराकर परिवार पोषण करेंगे। बच्चों को उच्च शिक्षा तक पढ़ाऐंगे। फिर उनको रोजगार मिल जाए। उनका विवाह करेंगे। परमात्मा संतान को संतान दे। फिर हमारा कर्तव्य पूरा हुआ। कई बार गाँव या गवांड (पड़ौसी गाँव) के वृद्ध इकट्ठे होते तो आपस में कुशल-मंगल जानते तो एक ने कहा कि परमात्मा की कृपा से दो लड़के तथा दो लड़की हैं। कठिन परिश्रम करके पाला-पोसा तथा पढ़ाया, विवाह कर दिया। सब के सब बेटा-बेटियों वाले हैं। मेरा कार्य पूर्ण हुआ। 75 वर्ष का हो गया हूँ। अब बेशक मौत हो जाए, मेरा जीवन सफल हुआ। वंश बेल चल पड़ी, संसार में नाम रहेगा।
विवेचन:- उपरोक्त प्रसंग में जो भी प्राप्त हुआ, वह पूर्व निर्धारित संस्कार ही प्राप्त हुआ, नया कुछ नहीं मिला। एक व्यक्ति का विवाह हुआ। संतान रूप में बेटी हुई। मानव समाज की धारणा रही है कि पुत्र नहीं है तो उसका वंश नहीं चलता। (परंतु आध्यात्मिक ज्ञान की दृष्टि से पुत्र-पुत्री में कोई अंतर नहीं माना जाता) आशा लगी कि दूसरा पुत्र तो बेटा होगा। दूसरी भी लड़की हुई। फिर आशा लगी कि परमात्मा तीसरा तो पुत्र दे। परंतु तीसरी भी लड़की हुई। इस प्रकार कुल पाँच बेटियाँ हुई। पुत्र का जन्म हुआ ही नहीं। इस उदाहरण से स्पष्ट होता है कि न तो मानव का चाहा हुआ और न किया हुआ। जो कुछ हुआ, संस्कारवश ही हुआ। यह परमेश्वर का विधान है। मानव शरीर प्राप्त प्राणी को वर्तमान जन्म में पूर्ण संत से दीक्षा लेकर भक्ति करनी चाहिए तथा पुण्य-दान, धर्म तथा शुभ कर्म अवश्य करने चाहिऐं, अन्यथा पूर्व जन्म के पुण्य मानव जीवन में खा-खर्च कर खाली होकर परमात्मा के दरबार में जाएगा। फिर पशु आदि के जीवन भोगने पड़ेंगे।
जैसे किसान अपने खेत में गेहूँ, चना आदि बीजता है। फिर परिश्रम करके उन्हें परिपक्व करके घर लाकर अपने कोठे (कक्ष) में भर लेता है। यदि वह पुनः बीज बो कर फसल तैयार नहीं करता है और पूर्व वर्ष के गेहूँ व चने को खा-खर्च रहा है तो वर्तमान में तो उसे कोई आपत्ति नहीं आएगी क्योंकि पूर्व वर्ष के गेहूँ-चना शेष है, परंतु एक दिन वह पूर्व वाला संग्रह किया अन्न समाप्त हो जाएगा और वह किसान परिवार भिखारी हो जाएगा। ठीक इसी प्रकार मानव शरीर में जो भी प्राप्त हो रहा है, वह पूर्व के जन्मों का संग्रह है। यदि वर्तमान में शुभ कर्म तथा भक्ति नहीं की तो भविष्य का जीवन नरक हो जाएगा।
अध्यात्म ज्ञान होने के पश्चात् मानव बुद्धिमान किसान की तरह प्रतिवर्ष प्रत्येक मौसम में दान-धर्म, स्मरण रूपी फसल बोएगा तथा अपने घर में संग्रह करके खाएगा तथा बेचकर अपना खर्च भी चलाएगा यानि पूर्ण गुरू जी से दीक्षा लेकर उनके बताए अनुसार साधना तथा दान-धर्म प्रति समागम में करके भक्ति धन को संग्रह करेगा। इसलिए परम संत मानव को जीने की राह बताता है। उसका आधार सत्य आध्यात्मिक ज्ञान सर्व ग्रन्थों से प्रमाणित होता है।
जैसा कि पूर्वोक्त प्रसंग में एक वृद्ध ने बताया कि सर्व संतान का पाल-पोसकर विवाह कर दिया। मेरे मानव जीवन का कार्य पूरा हुआ, मेरा जीवन सफल हुआ। अब बेशक मौत आ जाए। विचारणीय विषय है कि उसने तो पूर्व का जमा ही खर्च कर दिया, भविष्य के लिए कुछ नहीं किया। जिस कारण से उस व्यक्ति का मानव जीवन व्यर्थ गया।
कबीर जी ने कहा है कि:-
क्या मांगुँ कुछ थिर ना रहाई। देखत नैन चला जग जाई।। एक लख पूत सवा लख नाती। उस रावण कै दीवा न बाती।।
भावार्थ:- यदि एक मनुष्य एक पुत्र से वंश बेल को सदा बनाए रखना चाहता है तो यह उसकी भूल है। जैसे श्रीलंका के राजा रावण के एक लाख पुत्र थे तथा सवा लाख पौत्र थे। वर्तमान में उसके कुल (वंश) में कोई घर में दीप जलाने वाला भी नहीं है। सब नष्ट हो गए। इसलिए हे मानव! परमात्मा से यह क्या माँगता है जो स्थाई ही नहीं है। यह अध्यात्म ज्ञान के अभाव के कारण पे्ररणा बनी है। परमात्मा आप जी को आपका संस्कार देता है। आपका किया कुछ नहीं हो रहा। उस वृद्ध की बात को मानें कि पुत्र के होने से वंश वृद्धि होने से संसार में नाम बना रहता है। एक गाँव में प्रारम्भ में चार या पाँच व्यक्ति थे। उनके वंश के सैंकड़ों परिवार बने हैं। उनका वंश चल रहा है। उनका संसार में नाम भी चल रहा है। परंतु शास्त्रोक्त विधि से भक्ति न करने के कारण परमात्मा के विधानानुसार वह भला पुरूष कहीं गधा बनकर कष्ट उठा रहा होगा। वहाँ पर गधे के वंश की वृद्धि करके फिर कुत्ते का जन्म प्राप्त करके वहाँ उस कुल की वृद्धि करके अन्य प्राणियों के शरीर प्राप्त करके असंख्यों जन्म कष्ट उठाएगा। भावार्थ है कि मानव जीवन प्राप्त प्राणी को चाहिए कि सांसारिक कर्तव्य कर्म करते-करते आत्म कल्याण का कार्य भी करे। जिस कारण से परिवार से आने वाली पूर्व पाप की मार भी टलेगी, परिवार खुशहाल रहेगा। अन्यथा शुभ-अशुभ दोनों कर्मों का फल भोगने से कभी सुख तथा कभी दुःख का कहर भी झेलना पड़ता है।
एक समय दास (लेखक) एक गाँव में तीन दिन का सत्संग-पाठ कर रहा था। उसी परिवार का एक रिश्तेदार एक चार वर्ष के लड़के को साथ लिए आया। चर्चा में उसने बताया कि मुझे चार पुत्र, दो पुत्री संतान रूप में प्राप्त हुई। सबका विवाह कर दिया। मेरे जैसा सुखी हमारे गाँव में शायद ही कोई था। फिर ऐसी नौबत आई कि दो वर्ष में घर उजड़ गया। दो बेटे मोटरसाईकिल पर ससुराल जा रहे थे, दुर्घटना में भगवान के घर चले गए। उनकी पत्नी भी अन्य गाँव में विवाह दी। एक वर्ष पश्चात् एक पुत्र को खेत में ट्यूबवैल पर रात्रि में सर्प ने डस लिया, मृत मिला। चैथा इस दुःख से हृदयघात से चल बसा। सब बहुऐं भी चली गई। पत्नी का मानसिक संतुलन बिगड़ गया। यह लड़का बड़ी लड़की का है जिसके सहारे दिन काट रहा हूँ। बेटी को घर पर रखा है। प्रिय पाठकों से निवेदन है कि विवेक से काम लें और मानव जीवन की सच्ची राह पकड़ें, भक्ति अवश्य करें।
संतान होना या ना होना यह आपके पूर्व के कर्मों का फल है। यदि संतान को धर्म-कर्म का ज्ञान नहीं है तो वह चाहे कितनी ही नेक है, कभी न कभी गलती कर ही देगी। वह सब पाप कर्मों के कारण होगा। एक व्यक्ति ने बताया कि मेरा ससुर चार एकड़ का जाट किसान था। उसने दिन-रात मेहनत करके कुल सोलह एकड़ जमीन खरीदकर बना ली यानि बारह एकड़ जमीन और मोल ले ली। चार लड़के थे और एक लड़की थी। सबकी शादी कर दी। साठ वर्ष की आयु में मेरे ससुर जी को अधरंग मार गया। चारों लड़के भिन्न रहते थे।
कुछ दिन बड़े बेटे में रहा, परंतु 6 महीने में ही कपड़ों में बदबू आने लगी। फिर तीसरे नम्बर वाले के घर में रहा, कुछ दिन बाद उसने भी हाथ खड़े कर दिए। इस प्रकार चारों पुत्र सेवा से तंग आ गए। गाँव की पंचायत ने मेरे ससुर जी की सेवा कराने के उद्देश्य से दो एकड़ जमीन उसको अधिक देने का फैसला किया जो बेटा अपने पिता की सेवा करेगा। इस लालच में छोटे वाले ने सेवा करने की बात मान ली। 6 महीने में उसने कहा कि मेरे बस की बात नहीं है। रिश्तेदार इकट्ठे हुए। सब बच्चों को सभी प्रकार से समझाया, परंतु कोई सेवा को तैयार नहीं हुआ। वह भक्त बता रहा था कि मेरा ससुर बोल भी नहीं पा रहा था। जब छोटा पोता सामने आया तो गर्दन के संकेत से कह रहा था कि आजा मेरे पास, लाड करूंगा। यह भूल पड़ी है। बेटों ने तो कर दी मौज, पोतों की कसर बाकी है। उन दो एकड़ को ठेके पर देकर उसके लिए एक नौकर रखा, दुर्गति से मरा।
विचार करें कि ऐसे कमेरे (मेहनती) व्यक्ति को यह भी ज्ञान होता कि भक्ति तथा धर्म के बिना मानव जीवन नरक बन जाता है तो वह उसके साथ-साथ परमात्मा की भक्ति भी करता तथा ऐसी दशा को प्राप्त नहीं होता। बच्चे भी सेवा करते। सत्संग में यही शिक्षा दी जाती है। श्रद्धालुओं को दया-धर्म का पाठ पढ़ाया जाता है। आश्रम में सत्संग के दौरान वृद्ध, रोगी, अपंग, छोटे बच्चों सहित माताऐं, बहनें, बेटियां आते हैं। आश्रम में पुराने भक्तों तथा भक्तमतियों की ड्यूटी लगाई जाती है। वे आने वाले वृद्धों, रोगियों तथा अन्य असहायों की सेवा करते हैं। उनको स्नान कराते हैं। उनके वस्त्रा धोते हैं। भोजनालय से भोजन-प्रसाद लाकर पण्डाल में बैठों को खिलाते हैं। चाय-दूध भी वहीं बैठों को लाकर देते हैं। विचार करें कि जो बच्चे (सत्संग में जाने वाले) तथा बेटी, बहनें, माई व भक्त-भाई सत्संग में आने वाले गैरों की सेवा करते हैं तो वे घर पर अपने माता-पिता, भाई-बहन, सास-ससुर की भी उसी भाव से सेवा करेंगे क्योंकि उनका स्वभाव बन जाता है। उनके दिलों में दया भरी रहती है। उनको परमात्मा का विधान अच्छी तरह याद होता है। जैसा कि पूर्व में प्रसंग है कि एक कमेरे (मेहनती) किसान को अधरंग मारना और बच्चों द्वारा अनदेखा करना। यदि वे लड़के तथा बहुऐं सत्संग में जाते तो वे अपने पिता की बहुत सेवा करते। यदि वह किसान परमात्मा की भक्ति करता तो उसका शरीर स्वस्थ रहता और उसकी भक्ति के कारण भजन के तेज से प्रभावित होकर परिवार अपने-आप आदर करता है। उदाहरण के लिए साधु-संत भक्ति ही करते हैं, जिस कारण गाँव का गाँव उनका सेवा-सत्कार करता है। इसी प्रकार भक्ति करने से परमात्मा की शक्ति अपने आप अन्य को प्रेरित करके भक्त के अनुकूल परिस्थिति बना देती है। इसीलिए भक्ति करने की पे्ररणा संत जन देते हैं। सत्संग से जीने की राह अच्छी बनती है।
कबीर परमेश्वर जी ने फिर बताया है कि:-
कबीर, काया तेरी है नहीं, माया कहाँ से होय।
भक्ति कर दिल पाक से, जीवन है दिन दोय।।
बिन उपदेश अचम्भ है, क्यों जिवत हैं प्राण।
भक्ति बिना कहाँ ठौर है, ये नर नाहीं पाषाण।।
भावार्थ:- परमात्मा कबीर जी कह रहे हैं कि हे भोले मानव! मुझे आश्चर्य है कि बिना गुरू से दीक्षा लिए किस आशा को लेकर जीवित है। न तो शरीर तेरा है, यह भी त्यागकर जाएगा। फिर सम्पत्ति आपकी कैसे है?
जिनको यह विवेक नहीं कि भक्ति बिना जीव का कहीं भी ठिकाना नहीं है तो वे नर यानि मानव नहीं हैं, वे तो पत्थर हैं। उनकी बुद्धि पर पत्थर गिरे हैं। कबीर जी ने फिर कहा है कि:-
बेगार की परिभाषा:-
अगम निगम को खोज ले, बुद्धि विवेक विचार।
उदय-अस्त का राज मिले, तो बिन नाम बेगार।।
भावार्थ:- पुराने समय में पुलिस थानों में जीप-कार आदि गाड़ियाँ नहीं होती थी। जब पुलिस वालों को कहीं रैड (छापा) मारनी होती तो किसी प्राइवेट थ्री व्हीलर या फोर व्हीलर वाले को जबरदस्ती पकड़ लेते और उसके व्हीकल (थ्री व्हीलर या फोर व्हीलर) में बैठकर जहाँ जाना होता, ले जाते। ड्राईवर भी थ्री व्हीलर वाला होता था तथा पैट्रोल-डीजल भी वही अपनी जेब से डलवाता था। उस दिन की दिहाड़ी भी नहीं कर पाता था। पुलिस वाले उसको सारा दिन इधर-उधर घुमाते रहते थे। आम व्यक्ति तो यह विचार करता था कि ये थ्री व्हीलर वाला आज तो बहुत ज्यादा कमाई करेगा। सारा दिन चला है, परंतु उसका मन ही जानता था। उस दिन उसके साथ क्या बीती होती थी। ऐसे ही राजा लोग इस जन्म में भक्ति ना करके केवल राज्य व्यवस्था को बनाए रखने में जीवन समाप्त कर रहे हैं तो वे बेगार करके जाते हैं। पूर्व जन्म के धर्म-कर्म से राजा बनता है। वर्तमान जन्म में उसी पुण्य को खर्च-खा रहा होता है। जनता को तो लगता है कि राजा बड़ी मौज कर रहा है। आध्यात्मिक दृष्टि से वह बेगार कर रहा है। भक्ति कमाई नहीं कर रहा है। यदि व्यक्ति पूर्ण गुरू से दीक्षा लेकर भक्ति नहीं करता है तो उसको चाहे उदय-अस्त का यानि पूरी पृथ्वी का राज्य भी मिल जाए तो भी वह थ्री व्हीलर वाले की तरह व्यर्थ की मारो-मार यानि गहमा-गहमी कर रहा है। उसे कुछ लाभ नहीं होना। इसलिए राजा हो या प्रजा, धनी हो या निर्धन, सबको नए सिरे से भक्ति करनी चाहिए। उसी से उनका भविष्य उज्जवल होगा।
परमात्मा कबीर जी ने अपने शिष्य संत गरीबदास जी को तत्वज्ञान समझाया जो इस प्रकार है:- (राग आसावरी शब्द नं. 1)
मन तू चलि रे सुख के सागर, जहाँ शब्द सिंधु रत्नागर। (टेक)
कोटि जन्म तोहे मरतां होगे, कुछ नहीं हाथ लगा रे।
कुकर-सुकर खर भया बौरे, कौआ हँस बुगा रे।।(1)
कोटि जन्म तू राजा किन्हा, मिटि न मन की आशा।
भिक्षुक होकर दर-दर हांड्या, मिल्या न निर्गुण रासा।।(2)
इन्द्र कुबेर ईश की पद्वी, ब्रह्मा, वरूण धर्मराया।
विष्णुनाथ के पुर कूं जाकर, बहुर अपूठा आया।।(3)
असँख्य जन्म तोहे मरते होगे, जीवित क्यूं ना मरै रे।
द्वादश मध्य महल मठ बौरे, बहुर न देह धरै रे।।(4)
दोजख बहिश्त सभी तै देखे, राज-पाट के रसिया।
तीन लोक से तृप्त नाहीं, यह मन भोगी खसिया।।(5)
सतगुरू मिलै तो इच्छा मेटैं, पद मिल पदै समाना।
चल हँसा उस लोक पठाऊँ, जो आदि अमर अस्थाना।।(6)
चार मुक्ति जहाँ चम्पी करती, माया हो रही दासी।
दास गरीब अभय पद परसै, मिलै राम अविनाशी।।(7)
सूक्ष्मवेद की वाणी का भावार्थ:-
वाणी का सरलार्थ:- आत्मा और मन को पात्र बनाकर संत गरीबदास जी ने संसार के मानव को समझाया है। कहा है कि ‘‘यह संसार दुःखों का घर है। इससे भिन्न एक और संसार है। जहाँ कोई दुःख नहीं है। वह स्थान (सनातन परम धाम = सत्यलोक) है तथा वहाँ का प्रभु (अविनाशी परमेश्वर) सुखों का सागर है। सुख सागर अर्थात् अमर परमात्मा तथा उसकी राजधानी अमर लोक की संक्षिप्त परिभाषा बताई है:-
शंखों लहर मेहर की ऊपजैं, कहर नहीं जहाँ कोई।
दास गरीब अचल अविनाशी, सुख का सागर सोई।।
भावार्थ:- जिस समय मैं (लेखक) अकेला होता हूँ, तो कभी-कभी ऐसी हिलोर अंदर से उठती है, उस समय सब अपने-से लगते हैं। चाहे किसी ने मुझे कितना ही कष्ट दे रखा हो, उसके प्रति द्वेष भावना नहीं रहती। सब पर दया भाव बन जाता है। यह स्थिति कुछ मिनट ही रहती है। उसको मेहर की लहर कहा है। सतलोक अर्थात् सनातन परम धाम में जाने के पश्चात् प्रत्येक प्राणी को इतना आनन्द आता है। वहाँ पर ऐसी असँख्यों लहरें आत्मा में उठती रहती हैं। जब वह लहर मेरी आत्मा से हट जाती है तो वही दुःखमय स्थिति प्रारम्भ हो जाती है। उसने ऐसा क्यों कहा?, वह व्यक्ति अच्छा नहीं है, वो हानि हो गई, यह हो गया, वह हो गया। यह कहर (दुःख) की लहर कही जाती है।
उस सतलोक में असँख्य लहर मेहर (दया) की उठती हैं, वहाँ कोई कहर (भयँकर दुःख) नहीं है। वैसे तो सतलोक में कोई दुःख नहीं है। कहर का अर्थ भयँकर कष्ट होता है। जैसे एक गाँव में आपसी रंजिश के चलते विरोधियों ने दूसरे पक्ष के एक परिवार के तीन सदस्यों की हत्या कर दी, कहीं पर भूकंप के कारण हजारों व्यक्ति मर जाते हैं, उसे कहते हैं कहर टूट पड़ा या कहर कर दिया। ऊपर लिखी वाणी में सुख सागर की परिभाषा संक्षिप्त में बताई है। कहा है कि वह अमर लोक अचल अविनाशी अर्थात् कभी चलायमान अर्थात् ध्वंस नहीं होता तथा वहाँ रहने वाला परमेश्वर अविनाशी है। वह स्थान तथा परमेश्वर सुख का समुद्र है। जैसे समुद्री जहाज बंदरगाह के किनारे से 100 या 200 किमी. दूर चला जाता है तो जहाज के यात्रियों को जल अर्थात् समुद्र के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता। सब ओर जल ही जल नजर आता है। इसी प्रकार सतलोक (सत्यलोक) में सुख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है अर्थात् वहाँ कोई दुःख नहीं है।
अब पूर्व में लिखी वाणी का सरलार्थ किया जाता है:-
मन तू चल रे सुख के सागर, जहाँ शब्द सिंधु रत्नागर।।(टेक)
कोटि जन्म तोहे भ्रमत होगे, कुछ नहीं हाथ लगा रे।
कुकर शुकर खर भया बौरे, कौआ हँस बुगा रे।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने अपनी अच्छी आत्मा संत गरीबदास जी को सूक्ष्मवेद समझाया, उसको संत गरीबदास जी (गाँव-छुड़ानी जिला-झज्जर, हरियाणा प्रान्त) ने आत्मा तथा मन को पात्र बनाकर विश्व के मानव को काल ब्रह्म के लोक का कष्ट तथा सतलोक का सुख बताकर उस परमधाम में चलने के लिए सत्य साधना जो शास्त्रोक्त है, करने की प्रेरणा की है। मन तू चल रे सुख के सागर अर्थात् सनातन परम धाम में चल जहाँ पर शब्द नष्ट नहीं होता। इसलिए शब्द का अर्थ अविनाशीपन से है कि वह स्थान अमरत्व का सिंधु अर्थात् सागर है और मोक्ष रूपी रत्न का आगर अर्थात् खान है। इस काल ब्रह्म के लोक में आप जी ने भक्ति भी की। परंतु शास्त्रानुकूल साधना बताने वाले तत्वदर्शी संत न मिलने के कारण आप करोड़ों जन्मों से भटक रहे हो। करोड़ों-अरबों रूपये संग्रह करने में पूरा जीवन लगा देते हो, फिर मृत्यु हो जाती है। वह जोड़ा हुआ धन जो आपके पूर्व के संस्कारों से प्राप्त हुआ था, उसे छोड़कर संसार से चला गया। उस धन के संग्रह करने में जो पाप किए, वे आप जी के साथ गए। आप जी ने उस मानव जीवन में तत्वदर्शी संत से दीक्षा लेकर शास्त्राविधि अनुसार भक्ति की साधना नहीं की। जिस कारण से आपको कुछ हाथ नहीं आया। पूर्व के पुण्यों के बदले धन ले लिया। वह धन यहीं रह गया, आपको कुछ भी नहीं मिला। आपको मिले धन संग्रह तथा भक्ति शास्त्रानुकूल न करने के पाप।
जिनके कारण आप कुकर = कुत्ता, खर = गधा, सुकर = सूअर, कौआ = एक पक्षी, हँस = एक पक्षी जो केवल सरोवर में मोती खाता है, बुगा = बुगला पक्षी आदि-आदि की योनियों को प्राप्त करके कष्ट उठाया।
कोटि जन्म तू राजा कीन्हा, मिटि न मन की आशा।
भिक्षुक होकर दर-दर हांड्या, मिला न निर्गुण रासा।।
सरलार्थ:- हे मानव! आप जी ने काल (ब्रह्म) की कठिन से कठिन साधना की। घर त्यागकर जंगल में निवास किया, फिर गाँव व नगर में घर-घर के द्वार पर हांड्या अर्थात् घूमा। भिक्षा प्राप्ति के लिए जंगल में साधनारत साधक निकट के गाँव या शहर में जाता है। एक घर से भिक्षा पूरी नहीं मिलती तो अन्य घरों से भोजन लेकर जंगल में चला जाता है। कभी-कभी तो साधक एक दिन भिक्षा माँगकर लाते हैं, उसी से दो-तीन दिन निर्वाह करते हैं। रोटियों को पतले कपड़े रूमाल जैसे कपड़े को छालना कहते हैं। छालने में लपेटकर वृक्ष की टहनियों से बाँध देते थे। वे रोटियाँ सूख जाती हैं। उनको पानी में भिगोकर नर्म करके खाते थे। वे प्रतिदिन भिक्षा माँगने जाने में जो समय व्यर्थ होता था, उसकी बचत करके उस समय को काल ब्रह्म की साधना में लगाते थे। भावार्थ है कि जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्ति के लिए वेदों में वर्णित विधि तथा लोकवेद से घोरतप करते थे। उनको तत्वदर्शी संत न मिलने के कारण निर्गुण रासा अर्थात् गुप्त ज्ञान जिसे तत्वज्ञान कहते हैं। वह नहीं मिला क्योंकि यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 10 में तथा चारों वेदों का सारांश रूप श्रीमद् भगवत गीता अध्याय 4 श्लोक 32 तथा 34 में कहा है कि जो यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों का विस्तृत ज्ञान स्वयं सच्चिदानन्द घन ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म अपने मुख कमल से बोलकर सुनाता है, वह तत्वज्ञान अर्थात् सूक्ष्मवेद है। गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने कहा है कि उस तत्वज्ञान को तू तत्वज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको दण्डवत् प्रणाम करने से नम्रतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्व को भली-भाँति जानने वाले तत्वदर्शी संत तुझे तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे। इससे सिद्ध हुआ कि तत्वज्ञान न वेदों में है और न ही गीता शास्त्रा में। यदि होता तो एक अध्याय और बोल देता। कह देता कि तत्वज्ञान उस अध्याय में पढ़ें। संत गरीबदास जी ने मन के बहाने मानव शरीरधारी प्राणियों को समझाया है कि वह निर्गुण रासा अर्थात् तत्वज्ञान न मिलने के कारण काल ब्रह्म की साधना करके आप जी करोड़ों जन्मों में राजा बने। फिर भी मन की इच्छा समाप्त नहीं हुई क्योंकि राजा सोचता है कि स्वर्ग में सुख है, यहाँ राज में कोई सुख-चैन नहीं है, शान्ति नहीं है।
निर्गुण रासा का भावार्थ:- निर्गुण का अर्थ है कि वह वस्तु तो है परंतु उसका लाभ नहीं मिल रहा। वृक्ष के बीज में फल तथा वृक्ष निर्गुण रूप में है, उस बीज को मिट्टी में बीजकर सिंचाई करके वह सरगुण वस्तु (वृक्ष, वृक्ष को फल) प्राप्त की जाती है। यह ज्ञान न होने से आम के फल व छाया से वंचित रह जाते हैं।
रासा = झंझट अर्थात् उलझा हुआ कार्य।
सूक्ष्मवेद में परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि:-
नौ मन (360 कि.ग्रा.) सूत = कच्चा धागा
कबीर, नौ मन सूत उलझिया, ऋषि रहे झख मार।
सतगुरू ऐसा सुलझा दे, उलझे न दूजी बार।।
सरलार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि अध्यात्म ज्ञान रूपी नौ मन सूत उलझा हुआ है। एक कि.ग्रा. उलझे हुए सूत को सीधा करने में एक दिन से भी अधिक जुलाहों का लग जाता था। यदि सुलझाते समय धागा टूट जाता तो कपड़े में गाँठ लग जाती। गाँठ-गठीले कपड़े को कोई मोल नहीं लेता था। इसलिए परमेश्वर कबीर जुलाहे ने जुलाहों का सटीक उदाहरण बताकर समझाया है कि अधिक उलझे हुए सूत को कोई नहीं सुलझाता था। अध्यात्म ज्ञान उसी नौ मन उलझे हुए सूत के समान है जिसको सतगुरू अर्थात् तत्वदर्शी संत ऐसा सुलझा देगा जो पुनः नहीं उलझेगा। बिना सुलझे अध्यात्म ज्ञान के आधार से अर्थात् लोकवेद के अनुसार साधना करके स्वर्ग-नरक, चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों के जीवन, पृथ्वी पर किसी टुकड़े का राज्य, स्वर्ग का राज्य प्राप्त किया, पुनः फिर जन्म-मरण के चक्र में गिरकर कष्ट पर कष्ट उठाया। परंतु काल ब्रह्म की वेदों में वर्णित विधि अनुसार साधना करने से वह परम शांति तथा सनातन परम धाम प्राप्त नहीं हुआ जो गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है और न ही परमेश्वर का वह परम पद प्राप्त हुआ जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में कभी नहीं आते जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है। काल ब्रह्म की साधना से निम्न लाभ होता रहता है।
वाणी नं 3:- इन्द्र-कुबेर, ईश की पदवी, ब्रह्मा वरूण धर्मराया।
विष्णुनाथ के पुर कूं जाकर, बहुर अपूठा आया।।
सरलार्थ:- काल ब्रह्म की साधना करके साधक इन्द्र का पद भी प्राप्त करता है। इन्द्र स्वर्ग के राजा का पद है। इसको देवराज अर्थात् देवताओं का राजा तथा सुरपति भी कहते हैं। यह सिंचाई विभाग अर्थात् वर्षा मंत्रालय भी अपने अधीन रखता है।
प्रश्न:- इन्द्र की पदवी कैसे प्राप्त होती है?
उत्तर:- अधिक तप करने से तथा सौ मन (4 हजार कि.ग्रा.) गाय या भैंस के घी का प्रयोग करके धर्मयज्ञ करने से एक धर्मयज्ञ सम्पन्न होती है। ऐसी-ऐसी सौ धर्मयज्ञ निर्विघ्न करने से इन्द्र की पदवी साधक प्राप्त करता है। तप या यज्ञ के दौरान यज्ञ या तप की मर्यादा भंग हो जाती है तो नए सिरे से यज्ञ तथा तप करना पड़ता है। इस प्रकार इन्द्र की पदवी प्राप्त होती है।
प्रश्न:- इन्द्र का शासन काल कितना है? मृत्यु उपरांत इन्द्र के पद को छोड़कर प्राणी किस योनि को प्राप्त करता है?
उत्तर:- इन्द्र स्वर्ग के राजा के पद पर 72 चैकड़ी अर्थात् 72 चतुर्युग तक बना रहता है। एक चतुर्युग में सत्ययुग+त्रोतायुग+द्वापरयुग तथा कलयुग का समय होता है। जो 1728000+1296000+864000+432000 क्रमशः सत्ययुग + त्रोतायुग + द्वापरयुग + कलयुग का समय अर्थात् 43 लाख 20 हजार वर्ष का समय एक चतुर्युग में होता है। ऐसे बने 72 चतुर्युग तक वह साधक इन्द्र के पद पर स्वर्ग के राजा का सुख भोगता है। एक कल्प अर्थात् ब्रह्मा जी के एक दिन में (जो एक हजार आठ (1008) चतुर्युग का होता है) 14 जीव इन्द्र के पद पर रहकर अपना किया पुण्य-कर्म भोगते हैं। इन्द्र के पद को भोगकर वे प्राणी गधे का जीवन प्राप्त करते हैं।