हनुमान जी का कल्याण कैसे हुआ
परमेश्वर ने कहा त्रोता युग में मैंने हनुमान को भी शरण में लिया था। प्रश्नः- धर्मदास ने प्रश्न किया हे कबीर परमेश्वर! आपने तो मेरे आश्चर्य को अधिक बढ़ा दिया। श्री हनुमान जी को तो अपनी शक्ति तथा श्री राम की भक्ति पर अत्यधिक अभिमान था। हे दीनानाथ! आपने हनुमान जी की बुद्धि को कैसे बदला? मुझ किकंर पर कृपा करके बताईए?
उत्तरः- कबीर परमेश्वर जी ने बताया हे धर्मदास! हनुमान जी लंका से सीता जी की खोज करके लौटा उस के हाथ में सीता द्वारा दिया सोने का कंगन था जिसे सीता जी अपने हाथ में चूड़ियों के स्थान पर पहनती थी। प्रातः काल का समय था। जिस स्थान पर पवन पुत्र आकाश मार्ग से उड़कर इस ओर पृथ्वी पर उतरा वह एक पर्वत था। उस के आने से पूर्व मैंने उस स्थान पर एक लीला की। एक सुन्दर बाग स्वादिष्ट फलों से लदे वृक्षों वाला अपनी शक्ति से स्थापित किया। उसी के एक कोने में स्वच्छ जल का सरोवर बनाया। दूसरे कोने में मैंने अपनी कुटिया बनाई। कुटिया के साथ आंगन में एक बहुत बड़ा घड़ा रखा था। हनुमान को भूख लगी थी। प्रथम स्नान करने लगा। सीता द्वारा दिया कंगन एक पत्थर की शिला रख दिया। स्नान करते समय हनुमान जी की दृष्टि उस कंगन पर ऐसे टिकी हुई थी जैसे ओस चाटते समय मणीधर सर्प अपनी मणी को मुख से निकाल कर जमीन पर रख देता है। ओस चाटते समय एक नजर मणी पर रखता है। कोई उसे उठा न ले। जैसे गाय चारा चरते समय भी एक टक दृष्टि अपने बच्चे पर रखती है। यदि कोई अन्य पशु उस बच्चे की ओर जाता है तो गाय उसे मारने को लपकती है। ठीक इसी प्रकार हनुमान के लिए वह कंगन इतना अनिवार्य था। क्योंकि उस कंगन को पहचान कर ही श्री रामचन्द्र जी को विश्वास हुआ कि वास्तव में सीता लंका पति रावण के बाग में कैद है। इसीलिए लंका पर आक्रमण करने की सोची तथा समुद्र पर पुल का निर्माण किया। यदि कंगन खो जाता तो श्री रामचन्द्र जी कभी भी हनुमान जी की बात पर विश्वास नहीं करते तथा इतने बड़े समुद्र पर पुल बनाने का कठिन कार्य करने की नहीं सोचते। कबीर परमात्मा बता रहे हैं कि हे धर्मदास! यह सर्व विचार हनुमान के मन में उठ रहे थे। यदि कंगन को किसी ने चुरा लिया तो मेरा सर्व प्रयत्न व्यर्थ हो जाएगा। इसलिए स्नान करते-2 पल-2 में उस कंगन की ओर देख रहे थे। एक बन्दर ने उस कंगन को उठा लिया तथा उसे ध्यान से देखने लगा। हनुमान की दृष्टि भी उस बन्दर पर पड़ी। हनुमान तुरन्त बन्दर की ओर दौड़ा, बन्दर भी दौड़ा, हनुमान ने सोचा यदि शरारती बन्दर ने यह कंगन समुद्र में फैंक दिया तो मेरा सर्वकार्य नष्ट हो जाएगा, देखते-देखते उस बन्दर ने मेरे आश्रम में प्रवेश किया तथा आंगन में रखे उस बड़े घड़े में वह कंगन डाल दिया तथा दौड़ गया। हनुमान ने देखा कि कंगन ऋषि के आश्रम में रखे घड़े में बन्दर ने डाल दिया तो सुख की सांस ली। हनुमान ने घड़े में झांक कर देखा तो पाया कि उस घड़े में उसी कंगन जैसे ढेर सारे कंगन पड़े थे। हनुमान पहचान नहीं सके कि वह कंगन कौन सा है जो मैं लाया था? अति दुःखी मन से आश्रम में बनी कुटिया की ओर देखा। वहाँ मैं (कबीर परमेश्वर जी) एक ऋषि के रूप में विराजमान था। मेरे निकट आकर बजरंग बली ने प्रणाम किया राम-राम बोला मैंने भी उसे राम-राम बोला तथा कहा आओ अंजनी लाल मैं आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा था। अपना परिचय मुझ से सुन कर हनुमान के आश्चर्य की सीमा नहीं रही तथा वह शब्द की ‘‘मैं आपकी प्रतीक्षा कर रहा था’’ और भी आश्चर्य में डाल रहा था। अपनी समस्या से परेशान हनुमान ने इस आश्चर्य के विषय में कुछ नहीं पूछा। उसने पूछा ऋषि वर श्री राम जी पर इस वक्त बहुत आपत्ति आई है। सीता माता जी का अपहरण लंका पति रावण ने कर रखा है मैं उसकी खोज करके आया हूँ। मैंने(कबीर परमेश्वर जी ने) प्रश्न किया हे बजरंग बली! आप कौन से श्री राम के विषय में कह रहे हो? हनुमान बोला! हे ऋषिवर आप कौन सी दुनिया में रहते हो। आपको यही नहीं पता कौन है श्री राम, क्या और भी श्री राम हैं? मैं राजा दशरथ के पुत्र श्री रामचन्द्र जी के विषय में कह रहा हूँ जिन्हें चैदह वर्ष का बनवास हुआ है। मैंने(कबीर परमेश्वर उर्फ मुनिन्द्र ऋषि ने) कहा हनुमान! मैं भी उसी अयोध्या के राजा, दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र श्री रामचन्द्र के विषय में ही आप से पूछ रहा हूँ? ऐसे श्री दशरथ पुत्र श्री रामचन्द्र करोड़ों, उत्पन्न होकर मर चुके हैं। इसी प्रकार श्री राम को बनवास होता है, इसी प्रकार श्री सीता का अपहरण होता है, इसी प्रकार आप जैसे हनुमान जी श्री सीता की खोज करके आते हैं।
इतनी बात मेरे मुख से सुनकर ब्रह्मचारी हनुमान कुपित होकर बोले ऋषि जी! यह समय मजाक(उपहास) करने का नहीं है। आप व्यर्थ में मिथ्या भाषण कर रहे हो, आप ऋषि के रूप में अज्ञानी विराजमान हो अन्यथा आप यह प्रश्न नहीं करते कि कौन से श्री राम के विषय में बातें कर रहे हो पूरे वन व देश में चर्चा चल रही है कि सीता जी का अपहरण होने से श्री रामचन्द्र जी अति व्याकुल हैं। मैंने (कबीर परमेश्वर ने) प्रश्न किया हनुमान ! आप ने मेरे पास आने का कष्ट किसलिए किया?
हनुमान बोला ऋषि जी ! मैंने बताया है कि मैं सीता माता की खोज करके आया हूँ। माता ने अपने हाथ का कंगन (सोने का कड़ा) मुझे दिया था जिसे पहचान कर श्री रामचन्द्र जी मुझ पर विश्वास करेंगे कि वह वास्तव में सीता जी का ही कंगन है, अन्यथा वे मुझ पर विश्वास नहीं कर सकेंगे। वह कंगन स्नान करते समय सरोवर के निकट पत्थर शिला पर रख दिया था। उसे एक बन्दर उठाकर आप के आश्रम में रखे घड़े में डाल गया। मैं उसे लेने आया हूँ। धर्मदास! मैंने हनुमान से कहा, आप आहार किजिए फिर अपना कंगन घड़े से निकाल कर ले जाईए।
हनुमान बोला हे ऋषि जी ! मुझे भूख बहुत लगी थी परन्तु अब सब समाप्त हो गई है। आप के घड़े में बहुत सारे कंगन हैं। मैं पहचान नहीं पा रहा हूँ कि मेरे वाला कंगन कौन सा है?
मैंने कहा आप पहचान भी नहीं सकोगे। क्योंकि ये सर्व कंगन आप जैसे हनुमानों द्वारा लाए गए उन सीताओं के ही हैं जो पहले वाले श्री रामों के साथ महान कष्ट भोग चुकी हैं। आप कोई एक कंगन उठा ले जाईए वही वर्तमान वाली सीता वाले कंगण से मेल करेगा कोई भिन्नता नहीं है। वर्तमान वाले श्री रामचन्द्र जैसे करोड़ों मर कर अन्य योनियों में चले गए हैं। हनुमान को कोई भी रास्ता दिखाई नहीं दिया। उसने कंगन की वास्तविकता को पक्का करने के लिए प्रश्न पूछा हे ऋषि जी ! आपने कहा कि अन्य श्री राम भी हुए है। उनकी भी पत्नी सीता नाम से थी। इसी प्रकार लंका पति रावण ने अपहरण किया तथा मेरे जैसे हनुमान इसी प्रकार सीता माता का कंगन लेकर आते थे। वे ही कंगन इस घड़े में विद्यमान हैं। हे दीनदयाल! यह बात कैसे सत्य मानूं क्योंकि जो हनुमान कंगन लाता होगा वह कंगन लेकर भी जाता होगा। फिर इस घड़े में कंगन कैसे रहेगा? मैंने (कबीर परमेश्वर उर्फ मुनिन्द्र जी ने) कहा, पवन पुत्र हनुमान !
प्रत्येक बार बन्दर, हनुमान द्वारा लाए कंगन को उठाकर इस घड़े में डालता है। इस घड़े में मेरी कृपा से ऐसी शक्ति है कि जो वस्तु इस में डाल दी जाती है। वह एक जैसी दो बन जाती है। ऐसा कह कर मैंने एक पीतल की कटोरी उस घड़े में डाली, डालते ही दो एक जैसी हो गई। यह देख कर हनुमान आश्चर्य चकित रह गया। दोनों कटोरियों का मिलान करने लगा। कुछ भी अन्तर नहीं था। तब मैंने कहा हनुमान! इसी प्रकार बन्दर द्वारा कंगन इस घड़े में डालते ही एक कंगन और वैसा ही तैयार हो जाता है। आप निःसंकोच ले जाईए तथा श्री रामचन्द्र से पहचान कराईए।
अब सुन तत्वज्ञान बजरंग बली! जिस दशरथ पुत्र श्री राम को आप सृष्टि रचनहार सर्वशक्तिमान मानते हो यह तो सतगुण विष्णु का अवतार है। ब्रह्मा-विष्णु तथा शिव ये नाशवान प्रभु हैं। इनके पिता काल ब्रह्म हैं जो इक्कीस ब्रह्मण्डों के प्रभु(स्वामी) हैं। ब्रह्म से अधिक ब्रह्मण्डों का प्रभु परब्रह्म है। जो सात संख ब्रह्मण्डों का स्वामी है। इन सर्व प्रभुओं का भी प्रभु(स्वामी) पूर्ण ब्रह्म (सत्पुरूष) है। उस की पूजा से जीव का जन्म-मृत्यु का चक्र सदा के लिए समाप्त हो जाता है। वह जीव सत्यलोक में चला जाता है। जहाँ जाने के पश्चात् लौट कर इस संसार में नहीं आता अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है। धर्मदास! मेरी चमत्कारी शक्ति से प्रभावित हनुमान उपरोक्त ज्ञान सुनता रहा। फिर विनयपूर्वक कहा हे ऋषि जी! अब मेरे पास समय कम है। मेरे ऊपर बहुत बड़ी जिम्मेवारी है। मैं पहले उससे मुक्त होना चाहता हूँ। एक बार सीता माता जी का संदेश श्री राम जी को देकर सीता माता जी को लंका पति रावण के चंुगल से छुड़वाना है। आप के अमृतवचन फिर कभी सुनूंगा, मुझे आज्ञा दिजिए ऋषिवर्। इतना कहकर हनुमान ने मेरे चरण लिए तथा एक कंगन उठा कर चला गया। हनुमान के मन में फिर भी शंका थी, कहीं श्री राम यह न कह दें कि यह कंगन सीता जी का नहीं है। हनुमान ने दूर से अतिहर्षित होकर आवाज लगाई सीता माता का पता लगा कर आया हूँ। निकट आने पर हनुमान ने कहा हे प्रभु! सीता माता को लंका पति रावण ने अपने नौलखे बाग में कैद कर रखा है। मैंने उसका बाग भी उजाड़ दिया तथा लंका को भी आग के हवाले कर दिया। माता सीता ने कहा है हे हनुमान! आप श्री राम को कहना मुझे शीघ्र कैद से मुक्त कराऐं, मैं यहाँ पर महाकष्ट उठा रही हूँ। यह सब हनुमान से सुन कर श्री राम बोले हे सन्त हनुमान! आप कोई निशानी बताओ जिस से मुझे विश्वास हो सके कि जिस स्त्राी के विषय में आप कह रहे हो वह सीता ही है। श्री राम के ऐसा कहने पर हनुमान ने संकोच युक्त मन से कहा यह लो माता जी की निशानी वह कंगन (जो घड़े से निकाल कर लाया था) जो सीता जी द्वारा हनुमान को दिया था। श्री राम के हाथ में थमा दिया। श्री राम ने ध्यान पूर्वक देखा कंगन सही है। श्री राम ने हनुमान को सीने से लगा कर कहा हे प्रिय आत्मा हनुमान! आपने मुझ पर महान् उपकार किया है। यह कंगन वास्तव में सीता का ही है। यदि आप कंगन नहीं लाते तो मुझे विश्वास नहीं होता। जब श्री राम ने कंगन को वास्तविक बताया तो हनुमान की खुशी का ठिकाना नहीं रहा तथा मेरा (ऋषि मुनिन्द्र का) चेहरा तथा उनसे हुई वार्ता आँखों के सामने चलचित्र की तरह घूमने लगी। हनुमान को लगा कि ऋषि परम सिद्धी युक्त है।
अरे बनचर क्या खबरां कपि ल्याये। कहो सीता की बात बिथा सब, क्या क्या भोजन पाये।।टेक।। कैसी प्रीति करी तुम सेती, बिंजन कहा जिमाये। कहौ हनुमंत संत जन मेरे, भूखे रहें क धाये।।1।। कैसा बदन बिनोद सती का, बूझत हूँ मन लाये। क्या पौंनीक पटंबर पहरे, हार डोरि गल छ्याये।।2।। क्या सिंगार उचार करत है, रावण सिज्या जाये। सुरमां सिलकि सिज्या पैठी, ना तुम्हों बदन छिपाये।।3।। बोलै पौंनी होय स हौंनी, सुनि हो रघुपति राये। सीता सती अती अति आतुर, आंसुपात चलि जाये।।4।। ढूंढत फिरा लंक चहूँ औरा, नौलख बाग छिपाये। जाय बिरछ पर छुबकी लाई, मंुदरा भेंट चढ़ाये।।5।। तहां प्रणाम करी सीता सौं, माता दर्शन पाये। झरे परे का हुकम किया था, नौलख बाग अघाये।।6।। नाजुक बदन नाम तुम्हारे में, जैसी माता जाये। रावण सेती प्रीति न जाकी, चंद बदन मुख छिपाये।।7।। पनंग समेटि पदम आसन से, पौंना गगन चढ़ाये। त्रिकुटी संजम ध्यान तास का, सूरज कमल उगाये।।8।। हार डोरि नहीं पाट पटंबर, सीता मन मुरझाये। अगर मालवै मूरति सूरति, गरीबदास पद गाये।।9।।9।।
श्री राम के मन में विचार उठा, कि यदि सीता ने रावण को समर्पण कर दिया होगा तो मैं सीता के लिए युद्ध नहीं करूंगा, किसलिए दुनियाँ के लाल मरवाऊँ। अपनी शंका के समाधान के लिए श्री राम ने अपने भक्त हनुमान से घुमा फिरा कर बातें पूछी ताकि सीता के विषय में यथाथर्् जानकारी प्राप्त कर सके। श्री राम ने हनुमान से पूछा हे मेरे प्यारे सन्त ! आप सीता के विषय में बताऐं वह कैसी है? वह रावण के महल में रहती होगी ? हनुमान ने कहा नहीं भगवान माता सीता तो रावण के नौलखा बाग में रहती है। श्री राम ने पूछा आपने भोजन कहां खाया, सीता आपको रावण के महल में खिला कर लाई होगी? हनुमान ने कहा नहीं भगवन् रावण के महल तक सीता माता की पहुँच कहाँ, मैंने माता से कहा माता भूख लगी है। तब सीता माता ने कहा भाई हनुमान! इस बाग का कोई फल तोड़ कर नहीं खाना, कोई नीचे गिरा हो केवल वहीं खाना। यदि फल तोड़कर खा लिया और रावण के नौकरों को पता चल गया तो मुझे बहुत यातना देगें। मैं भी जमीन पर पड़े फलों को ही खाती हूँ। मुझे भी फल वृक्ष से तोड़कर खाने का आदेश नहीं। श्री राम ने पूछा हनुमान! सीता ने सिंगार कर रखा होगा सुन्दर कीमती साड़ी पहन रखी होगी? रावण की सेज पर सोती होगी?
हनुमान ने कहा हे भगवन्! माता-सीता ने फटे-पुराने कपड़े पहन रखे थे। जमीन पर बिछौना बिछा कर सोती है। हे भगवन्! मैं वृक्ष पर छुप कर बैठा था। रावण अपने सैनिकों समेत आया तथा सीता से अपनी पत्नी बनने के लिए विवश करने तथा भिन्न-2 प्रकार के वचन कहे। भय दिखाया अति त्रासदी माता ने कहा रावण! मेरी जान जा सकती है इस तन को श्री राम अतिरिक्त कोई अन्य पुरूष छू नहीं सकता। तू जितना चाहे कष्ट मुझे दे। रावण झख मार कर चला गया। तब मैंने तोड़-2 कर फल खाए। रावण का बाग उखाड़ कर समुद्र में फैंक दिया। रावण की लंका में आग लगा दी। जो नौकर-माता जी को परेशान करते थे उनकी खूब खबर ली। सीता जी का चाँद जैसा चेहरा मुरझाए फूल की तरह हो चुका है। वह तो आप की याद में खोई रहती है। आप की चर्चा के अतिरिक्त उसे कोई बात अच्छी नहीं लगती। मेरे से आप के विषय में पूछा ‘‘श्रीराम कैसे हैं?’’ मेरे वियोग में बहुत दुःखी होगें। हनुमान आप श्री राम के खाने पीने का ध्यान रखना। वे बहुत अच्छे हैं। मेरे वियोग में रो-2 कर अति दुःखी रहते होंगे। उन्हें मेरी राम-2 कहना तथा मेरी प्रार्थना करना की मुझे अति शीघ्र रावण की कैद से छुड़ा लें। मैं उनके बिना अति परेशान हूँ। हनुमान के श्री मुख से उपरोक्त वचन सुनकर श्री रामचन्द्र जी को विश्वास हो गया कि सीता का रावण से कोई सम्बन्ध नहीं है। वह अति व्याकुल है। तब रावण से युद्ध करने की तैयारी की तथा युद्ध जीत कर विभिषण को लंका का राज्य प्रदान किया। सीता की अग्नि परीक्षा लेकर श्री राम अपनी पत्नी सीता के साथ पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या आऐ साथ भाई लक्ष्मण भी था। श्री राम को अयोध्या का राज्य भरत ने सौंप दिया।
एक दिन सीता ने हनुमान को एक सच्चे मोतियों की बहुमुल्य माला दी। हनुमान जी ने उस माला के मणके फोड़-2 कर जमीन पर फैंक दिए। सीता को अच्छा नहीं लगा तथा क्रोधवश हनुमान के प्रति कटुवचन कहे। अरे हनुमान! तूने इतनी कीमती माला का विनाश कर दिया। तू रहा बन्दर का बन्दर! यह राजमहल वनचरों के लिए नहीं है। आज आप ने माला का नाश किया है। कल अन्य बहुमूल्य वस्तुओं को नाश कर डालेगा। तुम तो बन में ही रहने योग्य हो। हनुमान ने कहा हे माता! जिस वस्तु में राम नहीं वह वस्तु मेरे काम नहीं। मैंने मोती को फोड़ कर देखा, उनमें राम नहीं लिखा था। इसलिए मेरे लिए मिट्टी है और सुनों देवी आज आपने एक भक्त की आत्मा दुखाई है आप को इन महलों का अभिमान हो गया है। आप भी इन महलों में नहीं रह सकोगी। आप का भी सर्व जीवन जंगल में संतों के पास ही व्यतीत होगा। हनुमान जी ने सीता जी की इस बात से नाराज होकर अयोध्या त्याग दी तथा एकान्त वास किया। सीता जी भी अधिक समय अयोध्या नगरी में नहीं रह सकी। एक धोबी के व्यंग्य के कारण श्री राम ने सीता जी का त्याग कर दिया। सीता जी ने वन में ऋषि वाल्मिकी जी के आश्रम में शेष जीवन व्यतीत किया।
उस समय हनुमान जी अति विचलित थे। उसे संसार में कोई भी अपना दिखाई नहीं दे रहा था। धर्मदास! तब मैं (कबीर परमेश्वर) हनुमान जी के पास गया। मैंने राम-2 शब्द उच्चारण किया। हनुमान ने मेरी ओर देखा तथा उत्तर में जय राम जी कहा, हनुमान ने कहा, आओ ऋषि जी! आपका चेहरा पहले कभी मैंने देखा है। ध्यान नहीं आ रहा कहाँ देखा है? मैंने(कबीर परमेश्वर ने) कहा कि मैं बताता हूँ, आपने मुझे कहाँ देखा था? हनुमान ने मुझे बैठने को कहा। मैंने उसके निकट बैठ कर वह कंगन वाली बात याद दिलाई तथा कहा मैं वही ऋषि हूँ। उस समय हनुमान आप के पास तत्वज्ञान सुनने का वक्त नहीं था। अब आपके पास पर्याप्त समय है। इसलिए मैं आपको पूर्ण परमात्मा के बारे में ज्ञान सुनाने के लिए आया हूँ। यदि आपकी रूचि हो तो चर्चा की जाए। हनुमान ने कहा ऋषिवर! मैं आपका ज्ञान रूचि से सुनूंगा आप मुझे तत्वज्ञान सुनाओ।
मैंने हनुमान जी को सृष्टि रचना सुनाई ( कृप्या पाठक पढ़े सृष्टि रचना इसी पुस्तक के पृष्ठ 250 से 269 पर) हनुमान जी ने कहा ऋषि जी! आप के द्वारा सुनाया गया ज्ञान पहले कभी नहीं सुना इसलिए मन मानने को तैयार नहीं है। हनुमान के ऐसा कहते ही मैं अन्तर्धान हो गया। हनुमान मुझे हर दिशा में खोजने लगा। जब ऊपर आकाश की ओर देखा तो मैंने उसे दिव्य दृष्टि प्रदान की जिसके द्वारा हनुमान ने मुझे सतलोक के सिंहासन पर बैठे देखा। मेरे शरीर व सतलोक के तेज(प्रकाश) को देखकर हनुमान बहुत प्रभावित हुआ। कुछ समय पश्चात् मैं फिर उससे पचास गज की दूरी पर एक वृक्ष के नीचे विराजमान हुआ। मुझे देखकर महावीर हनुमान मेरे पास आया तथा प्रार्थना कि हे ऋषि मुनिन्द्र! कृप्या मुझे आप के सतलोक के दर्शन कराईए। तब मैंने हनुमान को धर्मदास आप की तरह सतलोक की सैर कराई। तब पहलवान को तत्वज्ञान हुआ तथा मेरे चरण लिए, उपदेश के लिए प्रार्थना की कहा हे ऋषिवर! आप पूर्ण परमात्मा हो आपने स्वयं को छुपाया हुआ है। कृप्या मुझे उपदेश दीजिए तथा वह विधि बताईए जिससे सत्यलोक की प्राप्ति हो सके। हे धर्मदास! तब मैंने हनुमान को नामदान दिया तथा अपना शिष्य बनाया। अंजनी पुत्र ने नाशवान राम की भक्ति त्यागकर अविनाशी राम अर्थात् मुझ पूर्णब्रह्म की भक्ति की जिससे हनुमान का कल्याण हुआ।