पंडित की परिभाषा

  1. साहेब कबीर द्वारा भैंसे से वेद मन्त्र बुलवाना
  2. (चित्र-साहेब कबीर द्वारा भैंसे से वेद मन्त्र बुलवाना)
  3. वार कौन तथा पार कौन?
  4. शब्द: ‘कोई है रे परले पार का‘
  5. अजपा जाप से विकार मरते हैं
  6. दयालु परमात्मा कौन?

पंडित की परिभाषा

विचार करें:- अध्याय 5 के श्लोक 18 में पंडित की परिभाषा बताते हुए कहा है कि जो समदर्शी (ज्ञान योगी) तत्वदर्शी साधक (पंडित) तत्वज्ञानी, गौ, कुत्ते, हाथी व चाण्डाल को एक समझता है। वह जीवत मुक्ता कहलाता है तथा भगवान प्राप्ति के लिए (भक्ति में लग) चुका है। जो ऐसा नहीं करता, वह बेशक बात बनाए, चैरासी लाख योनियों का कष्ट भोगेगा तथा नरक में जाएगा। पंडित वही है जो छुआछात नहीं करता, जो चांडाल (नीच) को भी एक जैसा समझता है। सबमें परमात्मा को देखें तथा उस पर दया करे, धिक्कारे नहीं।

।। साहेब कबीर द्वारा भैंसे से वेद मन्त्र बुलवाना।।

एक समय तोताद्रि नामक स्थान पर विद्वानों (पंडितों) का महा सम्मेलन हुआ। उसमें दूर-दूर के ब्रह्मवेता, वेदों, गीता जी आदि के विशेष ज्ञाता महापुरुष आए हुए थे। उसी महासम्मेलन में वेदों और पुराणों तथा शास्त्रों व गीता जी के प्रकाण्ड ज्ञाता महर्षि स्वामी रामानन्द जी भी आमन्त्रिात किए गए थे। स्वामी रामानन्द जी के साथ उनके परम शिष्य साहेब कबीर भी पहुँच गए। श्री रामानन्द जी साहेब कबीर को अपने साथ ही रखते थे। क्योंकि स्वामी रामानन्द जी जानते थे कि यह कबीर (कविर्देव) साहेब परम पुरुष हैं। इनके रहते मुझे कोई ज्ञान और सिद्धि में पराजित नहीं कर सकता। सम्मेलन में इस बात की विशेष चर्चा हो गई कि श्री रामानन्द जी के शिष्य कबीर साहेब (छोटी जाति के) जुलाहा हैं। यदि हमारे भण्डारे में भोजन करेंगे तो हम अपवित्र हो जाएंगे। हमारा धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। यदि सीधे शब्दों में मना करेंगे तो हो सकता है श्री रामानन्द जी नाराज हो जाऐं क्योंकि श्री रामानन्द जी उस समय के जाने-माने विद्वानों में से एक थे। यह सोच कर एक युक्ति निकाली कि भण्डारा दो स्थानों पर शुरु किया जाए। एक तो पंडितों के लिए, जो पंडितों (ब्राह्मणों) वाले भण्डारे में प्रवेश करे उसे चारों वेदों के एक-2 मन्त्र संस्कृत में सुनाने पड़ेंगे। ऐसा न करने वालों को दूसरे भण्डारे में जो आम संगत (साधारण व्यक्तियों) के लिए बना है में जाएंगे। क्योंकि उनका मानना था कि श्री रामानन्द जी तो विद्वान (पंडित) हैं। वेद मन्त्र सुना कर उत्तम भण्डारे में आ जाएंगे तथा साहेब कबीर (कविर्देव) ऐसा नहीं कर पाएगें क्योंकि उन्हें वे पंडितजन अशिक्षित मानते थे। अपने आप आम (साधारण) भण्डारे में चले जाएंगे। फिर सतसंग (प्रवचन) चल रहा था। उसमें वही उपस्थित पंडित जन संगत में मीठी-2 बातें बना कर कथाएँ सुना रहे थे कि:-

एक अछूत जाति की भीलनी (शबरी) परमात्मा के वियोग में वर्षों से तड़फ-2 कर राह जोह रही थी कि मेरे भगवान राम आएंगे। मैं उन्हें बेरों का भोग लगाऊँगी। प्रतिदिन बहुत दूर तक रास्ता बुहार कर आती है। कहीं मेरे भगवान को कांटा न लग जाए। क्योंकि मेरे भगवान के पैर कोमल हैं न। मेरे भगवान राम बहुत अच्छे हैं। एक दिन वह समय भी आ गया कि भगवान श्री रामचन्द्र जी आते दिखाई दिए। भीलनी सुध-बुद्ध भूल कर श्री रामचन्द्र जी के मुख कमल की ओर बावलों की तरह निहार रही है। क्या मैं कोई स्वपन तो नहीं देख रही हूँ या सचमुच मेरे राम जी आए हैं। आँखों को मल-मल कर फिर देख रही है। श्री राम व लक्ष्मण खड़े-2 देख रहे हैं। इस पर लक्ष्मण ने कहा शबरी भगवान को बैठने के लिए भी कहेगी या ऐसे ही ठडेसरी (खड़े तपस्वी) बनाए रखेगी। तब मानो नींद से जागी हो। हड़बड़ा कर अपने सिर का फटा पुराना मैला-कुचैला चीर उतार कर एक पत्थर के टुकड़े पर बिछा दिया और कहा कि भगवन! बैठो इस पर। श्री रामचन्द्र जी ने कहा कि नहीं बेटी, चीर उठाओ। यह कह कर उसका चीर उठा कर उसी के सिर पर रखना चाहा। भीलनी (शबरी) रोने लगी और रोती हुई ने कहा यह गन्दा (मैला) है न भगवान! इसलिए स्वीकार नहीं किया न। मैं कितनी अभागिन हूँ। आपके लिए उत्तम कपड़ा नहीं ला सकी। क्षमा करना भगवन। यह कह कर आँखों से अश्रुधार बह चली। तब श्री रामचन्द्र जी ने कहा कि शबरी! यह कपड़ा मेरे लिए मखमल से भी अच्छा कपड़ा है। लाओ बिछाओ! फिर भगवान उसी मैले कुचैले चीर पर विराजमान हो गए और शबरी के आँसुओं को अपने पिताम्बर से पौंछने लगे। फिर शबरी ने बेरों का भोग भगवान को लगवाया। पहले बेर को स्वयं थोड़ा सा खाती (चखती) है फिर वही बेर श्री राम को अपने हाथों से खिला रही है। भगवान श्री राम ने उस काली कलूटी, लम्बे-2 दाँतों वाली मैली कुचैली, अछूत शबरी के हाथ के झूठे बेरों का भोग रूचि-2 लगाया तथा कहा शबरी, बहुत स्वादिष्ट हैं। क्या मिलाया है इन बेरो में? शबरी ने कहा आपका प्यार मिलाया है आपकी बेटी ने। फिर लक्ष्मण को भी दिए कि खाओ बेर। लक्ष्मण ग्लानि करके श्री राम जी के भय से खाने का बहाना करके हाथ में लेकर पीछे फैंक देता है। जो बाद में द्रौणागिरी पर (शबरी के झूठे बेर) संजीवनी बूटी बन गए और लक्ष्मण के युद्ध में मूर्छित हो जाने पर वही बेर फिर खाने पड़े। भक्त की भावना का अनादर हानिकारक होता है।

जब आस-पास के ऋषियों को मालूम हुआ कि श्री राम आए हैं। वो हमारे यहाँ आश्रमों में अवश्य आएंगे क्योंकि हम ब्राह्मण हैं और भगवान श्री राम (क्षत्री हैं) अवश्य आएंगे। जब ऐसा नहीं हुआ तो सर्व ऋषि जन बन में साधना करने वाले (कर्मसन्यासी) श्री राम को मिले तथा कहा भगवन! एक ही नदी है जो साथ बह रही है। उसका पानी गंदा हो गया है। कृपया इसे स्चच्छ करने की कृप्या करें।

कबीर साहेब द्वारा भैंसे से वेद मन्त्र बुलवाना।

श्री राम ने कहा कि आप सर्व योगी जन बारी-2 अपना दायां पैर नदी के जल में डुबोएँ। फिर निकाल लें। सब उपस्थित ऋषियों ने ऐसा ही किया। परंतु जल निर्मल नहीं हुआ। फिर श्री राम ने उस पे्रमाभक्ति युक्त शबरी से कहा आप भी ऐसा ही करें। तब शबरी ने अपने दायां पैर नदी के जल में डाला तो उसी समय नदी का जल निर्मल हो गया। सर्व उपस्थित साधुजन शबरी की प्रशंसा करने लगे तथा शर्मिन्दा होकर श्री राम से पूछा कि प्रभु! क्या कारण है जो इस अछूत के स्पर्श मात्र से जल निर्मल हुआ जबकि हमारे से नहीं। तब श्री राम ने कहा - जो व्यक्ति परमात्मा का सच्चे प्रेम से भजन करता है तथा विकारों से रहित है वह उच्च प्राणी है। जाति ऊँची नीची नहीं होती है। आपको भक्ति साधना के साथ-2 जाति अहंकार भी है जो भक्ति का दुश्मन है। गीता जी भी यह सिद्ध करती है कि कर्मसन्यासी (गृहत्यागी) को अपने कत्र्तापन का अभिमान हुए बिना नहीं रहता। इसलिए कर्मयोगी (ब्रह्मचारी या गृहस्थी कार्य करते .2 साधना करने वाला) भक्त कर्म सन्यासी (गृहत्यागी) भक्तों से श्रेष्ठ हैं तथा जो पूर्ण परमात्मा की भक्ति करते हैं वो सर्वोंत्तम हैं। कबीर साहेब कहते हैं कि -

कबीर, पोथी पढ़-2 जग मुआ, पंडित भया न कोय। अढ़ाई अक्षर पे्रम के, पढ़े सो पंडित होय।।

प्रेम में जाति कुल का कोई अभिमान नहीं रहता है। केवल अपने महबूब का ही ध्यान बना रहता है।

(सतसंग समाप्त हुआ)

सत्संग समापन के पश्चात् भण्डारे का समय हुआ। दो ब्राह्मण वेदों के मन्त्र सुनने के लिए परीक्षार्थ पंडितों वाले भण्डारे के द्वार पर खड़े हो गए तथा परीक्षा लेकर वेद मन्त्र सुन कर भण्डारे में प्रवेश करवा रहे थे। साहेब कबीर (कविरग्नि) भी पंक्ति में खड़े अपनी बारी का इन्तजार कर रहे थे। जब साहेब कबीर की बारी आई उसी समय एक पास में घास चर रहे भैंसे को साहेब कबीर ने पुकारा - ऐ भैंसा! कृप्या इधर आना। इतना कहना था कि भैंसा दौड़ा-2 आया तथा साहेब कबीर के चरणों में शीश झुका कर अगले आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। तब कविर्देव ने उस भैंसे की कमर पर हाथ रखकर कहा कि - हे भैंसा! चारों वेदों का एक-2 श्लोक सुनाओ! उसी समय भैंसे ने शुद्ध संस्कृत भाषा में चारों वेदांे के एक-2 मन्त्र कह सुनाए। साहेब कबीर ने कहा - भैंसा इन श्लोकों का हिन्दी अनुवाद भी करो, कहीं पंडित जन यह न सोच बैठें कि भैंसा हिन्दी नहीं जानता। भैंसे ने साहेब कबीर की शक्ति से चारों वेदों के एक-2 मन्त्र का हिन्दी अनुवाद भी कर दिया। कबीर साहेब ने कहा - जाओ भैंसा पंडित! इन उत्तम जनों के भण्डारे में भोजन पाओ। मैं तो उस साधारण भण्डारे में प्रसाद पाऊँगा। कबीर साहेब जी की यह लीला देखकर सैकड़ों कथित पंडितों ने नाम लिया तथा आत्म कल्याण करवाया और अपनी भूल का पश्चाताप किया। साहेब कबीर ने कहा नादानों कथा सुना रहे थे शबरी और श्री राम की, आप समझे नहीं। अपने आप को उच्च समझ कर भक्त आत्माओं का अनादर करते हो। यह आप भक्तों का अनादर नहीं बल्कि भगवान का अनादर करते हो। जो गीता जी में कहते हैं कि अर्जुन कोई व्यक्ति कितना ही दुराचारी हो यदि वह भगवत विश्वासी है, साधु समान मान्य है।

अध्याय 9 का श्लोक 30

अनुवाद: (चेत्) यदि कोई (सुदुराचारः) अतिशय दुराचारी (अपि) भी (अनन्यभाक्) अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर (माम्) मुझको (भजते) भजता है तो (सः) वह (साधुः) साधु (एव) ही (मन्तव्यः) मानने योग्य है (हि) क्योंकि (सः) वह (सम्यक्) यथार्थ (व्यवसितः) निश्चयवाला है।

गरीबदास जी महाराज कहते हैं:-

कुष्टि होवे साध बन्दगी कीजिए। वैश्या के विश्वास चरण चित्त दीजिए।।

ऐसे अनजानों को जो कहते कुछ और करते कुछ हैं। कबीर साहेब कहते हैं:-

कबीर, कहते हैं करते नहीं, मुख के बड़े लबार। दोजख धक्के खाएगें, धर्मराय दरबार।।
कबीर, करनी तज कथनी कथें, अज्ञानी दिन रात। कुकर ज्यों भौंकत फिरै, सुनी सुनाई बात।।

एक समय नामदेव संत खाना बना रहे थे। कुत्ता रोटी उठा कर भाग लिया। वह संत घी का पात्र हाथ में ले कर पीछे-2 यह कहता हुआ चल पड़ा कि भगवन सूखी रोटी कैसे खाओगे? लाओ चुपड़ देता हूँ। काफी दूर निकल गए। वहाँ कुत्ता रूक गया। नामदेव जी रोटी को चुपड़ कर कुत्ते के सामने रखी दोनों इक्ट्ठा ही खाना खाने लगे। क्योंकि नामदेव जी को भगवान साक्षात् नजर आ रहे थे। आम व्यक्ति को कुत्ता नजर आ रहा था। यह लक्षण हैं पंडितों के। जब तक ऐसा नहीं है वह पंडित नहीं है अर्थात् भक्ति योग्य साधक नहीं है। यह गीता जी में भगवान का कथन है। जैसा कि आप पहले पढ चुके हैं गीता जी के अध्याय 5 के श्लोक 19 से 21 में। फिर प्रमाण है कि वही व्यक्ति मुक्त समझो जिसमें निम्न लक्षण हैं जो गीता जी के श्लोकों में निम्नलिखित हैं। अध्याय 5 के श्लोक 22 में कहा है कि हे अर्जुन! कर्मों के संयोग से उत्पन्न भोग (राज के लिए लड़ाई करना तथा फिर मौज मारना) नाशवान हैं। ज्ञानवान व्यक्ति इससे दूर रहता है तथा अध्याय 2 के श्लोक 37 में भगवान कह रहा है कि अर्जुन तू युद्ध कर। यदि युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग में मौज मारेगा और यदि जीत गया तो राज का आनन्द लेगा।

अध्याय 5 के श्लोक 23 में बताया है कि:-

योगी की व्याख्या इस प्रकार है कि जो अपने काम-क्रोध को जीत लेता है वही योगी (परमात्मा प्राप्त) है और वही सुखी है।

विचारें: यह मन तथा इन्द्रियाँ तो शंकर जी जैसे योगी से भी नहीं जीते गए अन्य प्राणी अर्जुन (जिसने दो-2 शादी करवा रखी थी) जैसे साधक कैसे योग युक्त (परमात्मा प्राप्ति) हो सकता है।

‘गरीब, कहन सुनन की करते बाता। कोई न देख्या अमृत खाता।।‘

।। वार कौन तथा पार कौन।।

अध्याय 5 के श्लोक 24, 25, 26 में गीता ज्ञान दाता से अन्य परमात्मा की जानकारी बताई है। श्लोक 23 में कहा है कि जो सच्चिदानंद घन ब्रह्म यानि परम अक्षर ब्रह्म की शास्त्रोक्त साधना निश्चल मन से करता है तो उस अमर परमात्मा को प्राप्त होता है।

अध्याय 5 के श्लोक 24 में कहा है कि वह योगी (साधक) ही निर्वाण ब्रह्म अर्थात् पूर्ण परमात्मा (सतपुरुष) को प्राप्त होता है। श्लोक 25 में भी निर्वाण ब्रह्म (पूर्ण परमात्मा) को पाने का वर्णन है तथा श्लोक 26 भी निर्वाण ब्रह्म (पूर्ण परमात्मा) पाने का प्रमाण देता है। जिसने काम-क्रोध समाप्त कर लिए वह व्यक्ति ही पूर्ण ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त समझो। यह क्षमता न ब्रह्माजी में, न शिव जी में, न विष्णु जी में फिर पार कौन? अर्थात वार ही ब्रह्मा, वार ही इन्द्र। वार का तात्पर्य है कि काल लोक में उरली तरफ ही रह गये, पार नहीं हुए अर्थात् सतलोक में नहीं पहुँचे।

।। शब्द।।

कोई है रे परले पार का, जो भेद कहै झनकार का।।टेक।।
वारिही गोरख वारिही दत्त। वारिह धू्र प्रहलाद अरथ।।
वारिही सुखदे वारिही व्यास, वारिही पारासुर प्रकाश।।1।।
वारिही दुरवासा दरवेश, वारिही नारद शारद शेष।
वारिही भरथरी गोपीचन्द, वारिही सनक सनंदन बंध।।2।।
वारिही ब्रह्मा वारिही इन्द्र, वारिही सहंस कला गोविंद।
वारिही शिव शंकर जो सिंभ, वारिही धर्मराय आरंभ।।3।।
वारिही धर्मराय धरधीर। परमधाम पौंहचे कबीर।।
ऋग यजु साम अर्थवन वेद, परमधाम नहीं लह्या भेद।।4।।
अलल पंख अगाध भेव, जैसे कुंजी सुरति सेव।
वार पार थेहा न थाह, गरीबदास निरगुन निगाह।।5।।

भावार्थ:- इस शब्द में आदरणीय गरीबदास जी साहेब कह रहे हैं कि कोई सतलोक का साधक नहीं दिखाई देता है जो उस सच्चे शब्द की धुन को बताए। केवल काल लोक में बने नकली सतलोक- अलख लोक, अगम लोक तथा अनामी लोक की नकली धुनों को वर्णन करने वाले साधक हैं।

धुनि क्या है?

उत्तर:- ढ़ोल यंत्र को बजाने के लिए एक विशेष प्रकार के डंडे का प्रयोग किया जाता है जिसको ढ़ोल पर मारा जाता है। उससे वास्तविक आवाज (धुनि) निकलती है। यदि उस ढोल पर कोई और वस्तु जैसे चप्पल व जूता मारे तो भी धुन तो होगी परंतु वह वास्तविक नहीं होगी। इसी प्रकार धुनि सही नाम (सतनाम) के जाप से वास्तविक धुनि प्रकट होगी। यदि कोई गलत नाम जाप कर रहा है धुनि उसमें भी प्रकट होगी परंतु सही नहीं होगी। इसलिए निम्न साधकों ने कोशिश की परंतु सतनाम साधना बिना उरली ओर (काल-ब्रह्म) के जाल में वार ही रहे, पार नहीं हुए अर्थात् सतलोक में नहीं गए। जबकि बहुत अच्छे साधक थे। जैसे कितनी ही उपजाऊ भूमि है यदि उसमें आम के स्थान पर बबूल का बीज बीज दीया जमीन ने तो उपजाना है परंतु जो वस्तु चाहिए थी नहीं मिली। जिन महापुरुषों में -- 1 श्री गोरख नाथ जी 2. श्री प्रहलाद जी 3. श्री ध्रूव जी 4. श्री दतात्रे जी 5. श्री सुखदेव जी 6. श्री वेद व्यास जी 7. श्री पाराशर जी 8. श्री दुर्वासा जी 9. श्री नारद जी 10. श्री सारदा जी 11. श्री शेषनाग जी 12. श्री भरथरीनाथजी 13. श्री गोपीचन्द नाथ जी 14. श्री सनक जी 15. श्री सनन्दन जी 16. श्री सनातन जी 17. श्री संत कुमार जी (ये चार ब्रह्मा के पुत्र भी महर्षि हैं जो बहुत अच्छे साधक हैं परंतु सतनाम व सारनाम बिना काल के जाल में ही बंधे हैं, पार नहीं हुए हैं) 18. श्री ब्रह्मा जी 19. श्री इन्द्र जी 20. श्री काल भगवान जो एक हजार कलाओं वाला है 21. श्री शिव शंकर जी 22. श्री विष्णु जी 23. श्री धर्मराय जी जो यहां (काल) का न्यायधीश है।

ये प्रभु तथा इनके उपासक भी जन्म-मरण तथा काल जाल में ही हैं। आदि माया (प्रकृति देवी) और देवता भी काल के बंधन में बंधे हुए हैं।

‘‘कबीर, सुर नर मुनि जन, तेतीस करोरि, बंधे सब निरंजन (काल) की डोरी।।‘‘

भावार्थ:- इस ब्रह्माण्ड में तेतीस करोड़ देवता हैं और अठासी हजार ऋषि हैं। ये तथा अन्य भक्ति के इच्छुक नर-नारी तत्वज्ञान न होने के कारण काल ब्रह्म की डोर से बँधे हैं यानि काल की रस्सी सबके गले में बँधी है।

सर्व देवता व साधक जो ब्रह्म की उपासना चाहे सर्गुण रूप में कर रहे हैं और चाहे निर्गुण रूप में कर रहे हैं वे जन्म-मरण चैरासी लाख जूनियों का कष्ट व फिर स्वर्ग नरक कर्माधार से चक्र लगाते रहते हैं। पूर्ण मोक्ष के आनन्द से वंचित रह जाते हैं। ये सब काल जाल में ही हैं। क्योंकि इनको सतनाम व सारनाम का दाता कोई पूर्ण संत नहीं मिला। परम धाम (सतलोक) में साहेब कबीर जी पहुँचे जो सतनाम व सारनाम की उपासना को आधार मान कर सुमरण स्वयं करते थे तथा अपने शिष्यों को बताते थे। चारों वेदों (यजुर्वेद, सामवेद, ऋग्वेद, अथर्ववेद) में भी परम धाम को पाने की विधि का ज्ञान नहीं है। साहेब गरीबदास जी महाराज कहते हंै कि मैंने सतनाम को साहेब कबीर (अपने सतगुरु) जी से प्राप्त किया। फिर ऐसी लगन लगाई जैसे अलल पक्षी अपने माता-पिता को पाने की जो आकाश मंे रहते हैं कोशिश करता है तथा कुंज पक्षी की तरह पल-पल कसक के साथ अपने सतलोक में जाने की तथा सतपुरुष को पाने की हृदय से लगन लगा कर स्मरण किया जिससे वह अपार असीमित लोक पाया और उस निर्गुण (गुणातीत सतपुरुष) को तेजपुंज के शरीर में देखा। जिसे पाँच तत्व के शरीर रहित होने से अधूरे साधक निराकार परमात्मा कहते हैं वह आकार में अपने सतधाम (सतलोक-परमधाम) में रहता है।

।। अजपा जाप से विकार मरते हैं।।

गीता अध्याय 5 श्लोक 27-28 का अनुवाद:- बाहर के विषय भोगों से मन को हटाकर शरीर के अंदर चल रहे श्वांस से नाम स्मरण करते हुए श्वांस व नाम जाप पर ध्यान लगाऐं। श्वांस-उश्वांस जो भृकुटी यानि दोनों नाक छिद्रों के मध्य सुषमणा द्वार से अंदर-बाहर होता है, उसको सम करके यानि अभ्यास से साधक साधना करता है। वह मोक्ष का अधिकारी मुनिः यानि साधक इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो जाता है। जो ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लेता है, वह संसार में रहता हुआ भी मुक्त ही है।(अध्याय 5 श्लोक 27-28)

विचार करें:- अध्याय 5 के श्लोक 27, 28 में वर्णन है कि श्वांस के द्वारा सतनाम सुमरण से ही मन तथा विकारों को मार सकता है। वही मुक्त होगा। ‘‘श्वांसा पारस भेद हमारा, जो खोजे सो उतरे पारा।‘‘ मन स्वयं काल का अंश है जो एक हजार भुजाओं का भगवान है। मन तथा विकारों को केवल कबीर साहिब (जो असंख्य भुजाओं के मालिक अर्थात् समर्थ भगवान हैं) के सुमरण (नाम) से मारा जा सकता है। इसके इलावा अन्य जैसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश व काल के जाप से मन काबू नहीं आ सकता। श्वांस सुमरण (सतनाम के जाप) से विकार मरते हैं। इसका प्रमाण आदरणीय नानक साहेब जी ने भी दिया है। पंजाबी गुरु ग्रंथ साहिब के पृष्ठ नं. 646 (रामकली राग पौड़ी नं. 68, 69) में पूछ रहा है कि संसार में किस-किस कारण से जन्म-मरण होता है तथा कैसे समाप्त होता है?

कित् कित् विधि जग उपजै पुरखा, कित् कित् विधि बिनस जाई? उतर दिया हैः-

हुऊमें विच जग उपजै पुरखा, नाम बिसारे दुःख पाई।।
गुरु मुख होवै ज्ञान तत विचारै, हुऊमें सबदै जलाई।।
तन मन निरमल निरमल बाणी, साचै रहै समाई।।
नामे नामि रह बैरागी साच रखिया उर धारै।।
नानक बिन नाम जोग कदे न होवै, देखहु रिदै विचारै।।68।।

उत्तर दिया है कि विकारों (काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार) के वश हो कर जीव जन्म-मरण में रहता है। सच्चे परमात्मा (सतपुरुष) के सच्चे नाम (सतनाम) से विकार समाप्त हो जाते हैं तथा नाम के बिना योग अधूरा है। इसलिए पूर्ण गुरु सेवै।

गुरुमुख साच शब्द बिचारै कोई। गुरुमुख सच वाणी प्रकट होई।।
गुरुमुख मन भीजै बुझै बिरला कोई। गुरुमुख निज घर वासा होई।।
गुरुमुख जोगी जूगत पछाणै। गुरुमुख नानक इको जाणै।।69।।

साच शब्द का प्रमाण तथा हुवमें विकारों को मारने का प्रमाण:-

पंजाबी गुरु ग्रन्थ साहेब पृष्ठ नं. 59-60 (राग सिरी - महला पहला) से सहाभार (शब्द नं. 11)

बिन गुरु प्रीत न उपजै हुवमें मैल न जाई। सोहं आप पछाणिया, शब्दई भेद पतिआई।।
गुरु मुख आप पछाणिअै, अवर की करे कराई।

गुरु जी के मिले बिना विकार व मन नहीं मर सकते। सतगुरु ने सोहं नाम दिया (सर्व नामांे में उत्तम नाम सोहं दिया) अब और कोई साधना क्यों करें? जब एक ही पूर्ण नाम (सतनाम) से पूर्ण लाभ प्राप्त हो गया। पूर्ण गुरु का शिष्य एक ही पूर्ण परमात्मा पर आधारित हो जाता है। फिर सारनाम प्राप्त करके पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है।

।। दयालु परमात्मा कौन?।।

गीता अध्याय 5 श्लोक 29 का अनुवाद:- गीता ज्ञान देने वाले काल ब्रह्म ने कहा है कि तत्वज्ञान के अभाव से मुझ काल को यज्ञ तथा तपों को भोगने वाला सम्पूर्ण लोकों का महान ईश्वर यानि महेश्वर, सम्पूर्ण प्राणियों का सुहृद यानि स्वार्थ रहित दयालु तथा हितैषी जानकर (शान्तिम्) शांति को (ऋच्छति) गंवा देता है।

विवेचन:- ‘‘ऋच्छति’’ शब्द का यथार्थ अर्थ है वंचित रहना। अन्य गीता अनुवादकों ने गलत अर्थ किया है कि मुझे सर्वेसर्वा जानकर साधक (शान्तिम्) शांति को (ऋच्छति) प्राप्त होता है। यह वैसी ही गलती है जैसी गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में ‘‘व्रज’’ का अर्थ ‘‘आना’’ किया है जबकि ‘‘व्रज’’ शब्द का यथार्थ अर्थ ‘‘जाना’’ है।

विशेष:- गीता अध्याय 5 श्लोक 29 में गीता बोलने वाले ब्रह्म काल ने कहा है कि जो अज्ञानी जन मुझे ही सर्व का मालिक व सर्व सुखदाई दयालु प्रभु मान कर मेरी ही साधना पर आश्रित हैं, वे मेरी साधना से मिलने वाली अश्रेष्ठ अस्थाई शान्ति को प्राप्त होते है जिस कारण से वे पूर्ण परमात्मा को प्राप्त होने से मिलने वाली शान्ति से वंचित रह जाते हैं अर्थात् उनका पूर्ण मोक्ष नहीं होता। उनकी शान्ति समाप्त हो जाती है तथा नाना प्रकार के कष्ट उठाते रहते हैं। इसीलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि यदि पूर्ण शान्ति चाहता है तो अर्जुन उस परमेश्वर की शरण में जा जिसकी कृपा से ही तू परमशान्ति तथा शाश्वत स्थान को प्राप्त होगा। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में भी है। अपनी साधना से होने वाली गति (मुक्ति) को अनुत्तम यानि घटिया कहा है।

विशेष: क्योंकि काल (ब्रह्म) भगवान तीन लोक के (ब्रह्मा-विष्णु-महेश) भगवानों तथा 21 ब्रह्मण्ड के लोकों का मालिक है। इसलिए ईश्वरों का भी ईश्वर है। इसलिए महेश्वर कहा है तथा जो भी साधक यज्ञ या अन्य साधना (तप) करके जो सुविधा प्राप्त करता है उसका भोक्ता (खाने वाला) काल ही है। जैसे राजा बन कर आनन्द करना, नाना प्रकार के विकार करना। इन सब का आनन्द स्वयं काल भगवान मन रूप से प्राप्त करता है तथा फिर तप्त शिला पर गर्म करके उससे वासना युक्त पदार्थ निकाल कर खाता है। अज्ञानतावश नादान प्राणी इसी काल भगवान को दयालु व प्रेमी जान कर शांति को प्राप्त हैं। जैसे कसाई के बकरे अपने मालिक (कसाई) को देखते हैं कि वह चारा डालता है, पानी पिलाता है, गर्मी-सर्दी से बचाता है। इसलिए उसे दयालु तथा प्रेमी समझते हैं परंतु वास्तव में वह कसाई उनका काल है। सबको काटेगा, मारेगा तथा स्वार्थ सिद्ध करेगा। ऐसे ही काल भगवान दयालु दिखाई देता है परंतु सर्व प्राणियों को खाता है। इसलिए कहा है कि उनकी शान्ति समाप्त हो जाती है अर्थात् महाकष्ट को प्राप्त होते हैं। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि उत्तम पुरूष अर्थात् श्रेष्ठ परमात्मा तो कोई अन्य ही है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सर्व का धारण पोषण करता है वह वास्तव में अविनाशी है। वह परमात्मा कहा जाता है। अपने विषय में गीता ज्ञान दाता अध्याय 11 श्लोक 32 में कहता है कि अर्जुन मैं काल हूँ, सर्व लोकों (मनुष्यों) को खाने के लिए आया हूँ। जिस के दर्शन करके अर्जुन जैसे योद्धा की शान्ति भी चली गई वह भय के मारे कांप रहा था। इसलिए इसी अध्याय 5 श्लोक 24 से 26 में गीता ज्ञान दाता से अन्य शान्त ब्रह्म का उल्लेख है। इससे यह भी प्रमाणित हुआ कि गीता ज्ञान दाता शान्त ब्रह्म नहीं है। अर्थात् काल है।

सार - विचार:-जो कुत्ता बनाए, गधा बनाए, टांग काटे (क्योंकि यहां सर्व भक्तजन मानते हैं कि परमात्मा की कृप्या से सब होता है। उसके आदेश के बिना पत्ता भी नहीं हिलता।) सबको खाए तथा अर्जुन जैसे योद्धा को डराकर युद्ध करवाए तथा फिर युद्ध में हुए पापों का फल युधिष्ठर को बुरे स्वपन आना, फिर कृष्ण जी द्वारा बताना कि आप यज्ञ करो क्यांेकि आपके युद्ध में किए हुए पाप दुःखदाई हो रहे हैं। फिर हिमालय में तप करवा कर शरीर गलाना, फिर नरक में डालना। अब पाठक स्वयं विचार करें।

दयायुक्त परमेश्वर कबीर साहेब जी हैं जो सतलोक के स्वामी हैं। वे सुख सागर हैं। वहाँ कोई जीव दुःखी नहीं है और यहाँ (काल लोक में) भी यदि कोई भक्त जन सुखी होना चाहता है तो उसी परम पिता परमात्मा, पूर्णब्रह्म, अविनाशी परमेश्वर कबीर भगवान की उपासना करें तथा आजीवन शरण में रहें।

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