अमर सिंह बोध

अध्याय ‘‘अमर सिंह बोध’’ का सारांश (सातवां अध्याय)

कबीर सागर में सातवां अध्याय ‘‘अमर सिंह बोध‘‘ पृष्ठ 69 (493) पर:-

परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को बताया कि एक अमर सिंह नाम का सिंगलदीप का राजा था। अमरपुरी नाम की नगरी उसकी राजधानी थी।

हे धर्मदास! मैं सत्यपुरूष की आज्ञा के अनुसार मृत्युलोक (काल लोक) में आया। (धर्मदास जी मन-मन में कह रहे थे कि आप स्वयं सब लीला कर रहे हो। मैं तो आपको दोनों रूपों में देख चुका हूँ।) परमात्मा ने कहा कि एक अमर सिंह नामक राजा अमरपुरी राजधानी में रहता है। वह पुण्यात्मा है, परंतु भगवान भूल गया है। आप जाओ, उसका कल्याण करो। कोई बालक भी नाम ले, उसे भी दीक्षा देना। स्त्री नाम ले, उसे भी नाम देना।

हे धर्मदास! मैं अमरपुरी नगरी में गया। राजा ने अपनी कचहरी (ब्वनतज) लगा रखी थी। मैं राजा के महल के मध्य में बनी ड्योडी में पहुँच गया। उस समय मैंने अपने शरीर का सोलह सूर्यों जितना प्रकाश बनाया। राजा के महल में अनोखा प्रकाश हुआ। राजा को पता चला तो उठकर महल में आया। मेरे चरण पकड़कर पूछा कि क्या आप ब्रह्मा, विष्णु, शिव में से एक हो या परब्रह्म हो? मैंने कहा कि ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा परब्रह्म से भी ऊपर के स्थान सतलोक से आया हूँ। राजा को विश्वास नहीं हुआ तथा मजाक जाना। मैं अंतध्र्यान हो गया। राजा रो-रोकर कहने लगा कि किस कारण आप आए थे? क्यों अब छुप गए? दशों दिशाओं को खोज रहा हूँ। पाँच दिन तक राजा विलाप करता रहा। पाँचवें दिन मैंने स्वयं आकर पानी से उसका मुख धोया। मैं फिर उसी प्रकाशमय शरीर में प्रकट हुआ था। राजा ने चरण लिए तथा कहा कि यदि अबकी बार हे परमात्मा! आप चले गए तो मुझे जीवित नहीं पाओगे। मैंने राजा को बताया कि आप पूर्व जन्म के पुण्यवान हैं। परंतु वर्तमान में कोरे पाप कर रहे हो। यह राज्य तथा जीवन और जवानी सदा नहीं रहेगी। पुनः पशु-पक्षी का जन्म प्राप्त करोगे। इसलिए भक्ति करो। राजा ने कहा कि मैं भगवान विष्णु जी की भक्ति करता हूँ। मैंने 101 (एक सौ एक) विष्णु जी के मंदिर अपने राज्य में बनवा रखे हैं। प्रत्येक में पुजारी छोड़ रखे हैं। उनका सब खर्च देता हूँ। पुराणों के आधार से गाय के सींगों पर सोना चढ़ाकर पिताम्बर ओढ़ाकर दूध वाली गाय ब्राह्मणों को देता हूँ। मैंने कहा कि यह मोक्ष मार्ग नहीं है। इस साधना से कर्म का भोग मिलेगा। पाप भी भोगोगे, पुण्य भी मिलेंगे। विष्णु तेरे पाप क्षमा नहीं कर सकता। मैं एक नाम दूँगा जिसके जाप से सर्व पाप नाश हो जाऐंगे। स्वर्ग से असंख्य गुणा सुखमय लोक प्राप्त होगा। राजा को विश्वास नहीं हो रहा था, परंतु मृत्यु का डर तथा पशु-पक्षी के जीवन से डरकर दीक्षा लेने की ठानी और मेरे शरीर का तेज देखकर प्रभावित होकर रानी को बुलाने गया जो सातवीं मंजिल पर महल में थी। पहले तो रानी ने कहा कि जो आप बता रहे हो कि विष्णु जी से ऊपर पूर्ण परमात्मा है। अधिक सुखदायी लोक है, यह झूठ हो और लोग हँसाई होवे। राजा ने कहा कि ऐसा संत नहीं देखा। आप स्वयं चलकर देखो। रानी मान गई।

उसकी पत्नी का नाम स्वरकला था। वह इतनी रूपवान (सुंदर) थी कि जिस समय मेरे चरण छूने के लिए राजा के साथ मैदान में आई। रानी के साथ सात (7) सहेलियाँ भी आई। वहाँ चारों ओर राजा के योद्धा, मंत्री-महामंत्री, राज दरबारी खड़े हुए और आश्चर्य किया कि रानी कभी नीचे नहीं आई थी, क्या कारण है? आज आई है। जब रानी ने अपने मुख से आधा पर्दा हटाया तो चेहरे की शोभा ऐसी थी जैसे दूसरा सूर्य पृथ्वी पर उतर आया हो। रानी का पहली बार मुख देखकर राजा के नौकरों ने कहा कि रानी नहीं देवी है। पाठकों से निवेदन है कि राजा की पदवी, संुदर रूप, स्वस्थ शरीर, धन-धान्य से परिपूर्णता, अच्छे नौकर, मंत्री आदि जीव को सौभाग्य से मिलते हैं। सौभाग्य कैसे बना? दुर्भाग्य कैसे बना? कब बना? ये प्रश्न अध्यात्म ज्ञान से हल होते हैं।

जन्म-जन्मान्तर में किए पुण्यों का अधिक संग्रह हो जाता है। तब उपरोक्त वस्तु तथा मानव तन प्राप्त होते हैं। वे पूर्व जन्म के परमात्मा के भक्त होते हैं। सत्संग के अभाव से वर्तमान में भक्ति न करके केवल पूर्व जन्म के शुभ कर्मों को ही खर्च-खा रहे होते हैं। ऐसे पुण्यात्माओं को परमेश्वर पुनः मार्गदर्शन करने के लिए भक्तिभाव जगाने के लिए कोई युक्ति बनाते हैं। ऐसी पुण्यात्माओं में एक विशेषता होती है कि वे भले ही उच्च अधिकारी या राजा हों, परंतु परमात्मा की चर्चा उन्हें विशेष अच्छी लगती है। परमेश्वर कबीर जी ने राजा अमर सिंह को उसी प्रकार शरण में लिया जैसे धर्मदास को शरण में लेने की लीला की थी। राजा-रानी ने दीक्षा ली। मुझे सिहांसन पर बैठाया और मेरे चरण धोकर चरणामृत बनाया। राजा ने पानी की झारी (मटका) लिया। राजा ने मेरे चरणों पर पानी डाला। रानी ने चरण धोए। फिर रानी ने अंगोछे से चरण पौंछे। ऐसी भाव भक्ति उन्होंने की। फिर खाना तैयार करके मुझे तथा राजा को एक साथ दो थालियों में भोजन परोसा। मैं तथा राजा अपनी-अपनी थाली से खाना खाने लगे। रानी स्वयं भोजन परोस रही थी। मेरी थाली पृथ्वी से कुछ ऊपर उठी जिससे मुझे खाने में सुविधा रहे। रानी ने यह देखा तो राजा को बताया। फिर तो सर्व सेवक आ गए। सर्व को विश्वास हुआ कि यह कोई सिद्ध महात्मा है, सामान्य व्यक्ति नहीं है। सब उपस्थित नर-नारियों ने प्रसाद माँगा। मैंने उपस्थित सर्व जनों को प्रसाद दिया जिससे सबके मन में भक्ति भावना तीव्र हो गई। राजा-रानी तथा अन्य ने दीक्षा ली।

अध्याय ’’अमर सिंह बोध से कुछ अमृतवाणियाँ‘‘

‘‘राजा बचन‘‘

रानी मानो कहा हमारो। साहेब चरन बेगि चितधारो।।
धन जौबन तनरंग पतंगा। छिन में छार होत है अंगा।।
तुरत मान जो रानी लीना। संत दरश कामिनि जो कीना।।
हाथ नारियल आरति लीना। सात खंड से उतर पग दीना।।
सात सहेली संग लगी जबहीं। स्वरकला पुनि उतरी तबहीं।।
सब उमराव बैठे दरबारा। रानी आइ बाहिर पग धारा।।
तब उमराव उठे भहराई। स्वरकला कस अचरज आई।।
रानी कबहु न देखी भाई। सो रानी कस बाहेर आई।।
गजमोतिन से पूरे मांगा। लाल हिरा पुनि दमके आंगा।।
आधा मस्तक कीन्ह उघारा। मानिक दमके झलाहलपारा।।
तब रानी सतगुरू पहँ आई। नारियल भेंट जो आन चढ़ाई।।
रानी थाल हाथ में लियऊ। करत निछावर आरति कियऊ।।
साखी-रानी ठाड़ि मैदान में, सुनो संत धर्मदास।
सुरज किरन अरू रानिको, एकही भयो प्रकाश।।

चैपाई

लगि चकाचैंधि अधिक पुनिज बहीं। देखि न जाय रानी तन तबहीं।।
राजा रानी दंडवत कीन्हा। ऐसी भक्ति हृदय में चीन्हा।।
दोउ कर जारि राय भयो ठाढा। उपज्यो प्रेम हृदय अति गाढा।।
साहेब हम पर दया जो कीजै। भुवन हमारे पांव जो दीजै।।
तबहीं हम मंदिर महँ आये। पलंग बिछाय तहां बैठाये।।
झारी भर तब राजा लीना। चरनामृत की युक्ति कीना।।
राजा ऊपरते डारत पानी। चरन पखारे स्वरकला रानी।।
चरण पखारि अँगोछा लीना। एैसी भाव भक्ति उन कीना।।
चरणामृत तब शीश चढ़ावा। ले चरणामृत बहु विनती लावा।।
जैसी भक्ति राव जो पावा। धरमदास तोहि बरन सुनावा।।

धर्मदास वचन

और कहो राजा की करनी। सो साहेब तुम भाखो वरनी।।

सतगुरू वचन

तुरतहि तब सब साज बनावा। हमको सो अस्नान करावा।।
हम अरू राय बैठे जेंवनारा। आनेउ सार धरे दोउ थारा।।
अधर थार भूमिते रहई। रानी तबहीं चितवन करई।।
रानी कहे रायसों तबहीं। लीला निरखो गुरू की अबहीं।।
अधर अग्र जिनका पनवारा। महा प्रसादते आइ अपारा।।
नर नारी तब ठाढे भय आई। महा प्रसाद अब देहु गुसाई।।
तब हम दीनेउ तहां प्रसादा। पाय प्रसाद भई तब यादा।।
पुरूष लोक की भई सुधि तबहीं। ज्ञानी आय चेताये भलहीं।।
हम भूले तुम लीन चेताई। फिरि न विगोवे आइ यमराई।।
या यम देश कठिन है फांसी। काम क्रोध मद लोभ विनाशी।।
साखी-काम क्रोध अरू लोभ यह, त्रिगुन बसे मन माहि। सत्य नाम पाये विना, जमते छुटन को नाहिं।।

इस प्रकार राजा अमर सिंह तथा रानी स्वरकला को दीक्षा दी और शरण में लिया।

राजा अमर सिंह के जीव को ऊपर के लोकों में लेकर गए। उनको चित्र तथा गुप्त के पास लेकर गए तो चित्र तथा गुप्त ने परमेश्वर कबीर जी का खड़े होकर सत्कार किया। उन्होंने कहा कि हे परमेश्वर! इस पापी आत्मा को बैकुण्ठ (स्वर्ग) में क्यों ले आये? परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि इसने सत्यनाम ले लिया है। चित्र तो प्राणी के वह कर्म लिखता है जो प्रत्यक्ष करता है और गुप्त वह कर्म लिखता है जो जीव अप्रत्यक्ष यानि छुपकर करता है। चित्र-गुप्त को शंका हुई कि हमारे यहाँ तो सर्व कर्मों का भोग मिलता है। सत्यनाम लेने से क्या कर्म समाप्त हो जाते हैं? तब परमेश्वर कबीर जी ने एक पारस पत्थर के टुकड़े को लोहे से छू दिया। उसी समय लोहा सोना (स्वर्ण) बन गया। तब परमेश्वर कबीर जी ने चित्र-गुप्त से कहा कि हमारा नाम पारस के समान है, जो जीव प्राप्त करता है, उसके गुण-धर्म बदल जाते हैं। वह शुद्ध आत्मा (हंस) बन जाता है। चित्र-गुप्त को आश्चर्य हुआ और परमेश्वर कबीर जी को प्रणाम किया। यह सब लीला यमराज भी देख रहा था। मैंने यमराज से कहा कि राजा को यमपुरी (यम की नगरी) दिखाकर लाओ। तब यमराज ने दो दूतों को राजा के साथ भेजा।

‘‘नरक का वर्णन’’

किसी स्थान पर पापी प्राणियों को कोल्हू में पीड़ा जा रहा था, कहीं उल्टा लटका रखा था, कहीं गर्म खंभों से बाँध रखा था। कई प्रकार से चीस (कष्ट) दी जा रही थी। कहीं पर यमदूत पापी प्राणियों को चबा-चबाकर खा रहे थे। कुछ डर के मारे इधर-उधर भाग रहे थे, परंतु कोई बच नहीं पा रहा था। किसी को नरक कुण्डों में डाल रखा था। कोई सिर में मोगरी (छोटे-मोटे डण्डे) मार रहा था। 84 नरक कुण्ड बने हैं। यह दृश्य आँखों से देखकर राजा व्याकुल हो गया। किसी कुण्ड में रूधिर (blood) भरा था। किसी में पीब (मवाद) तो किसी में मूत्र भरा था जिनकी गहराई (depth) एक योजन (12 कि.मी.) तथा चार योजन (48 किमी.) परिधि (diameter) यानि गोलाई और चार योजन तक दुर्गन्ध जाती है। इन चार कुण्डों का तो यह वर्णन है। पाँचवें में अग्नि जल रही थी, बहुत जीव उसमें जल रहे थे। यह बहुत लम्बा-चैड़ा है, गहरा है। राजा अमर सिंह उस नरक को देखकर भयभीत था, कुछ बोल नहीं पा रहा था।

जो झूठ बोलकर स्वार्थ पूर्ति करता है, उसकी जीभ काट रखी थी। जो झूठी गवाही देता था, उसको सर्प की जीभ लगा रखी थी। जो निर्दोष को मारता है, उसकी पिटाई हो रही थी। जो स्त्री अपने पति को छोड़कर पर पुरूष के पास जाती है। उसको नरक में अग्नि में जलाया जाता है यानि आग के मनुष्य जैसे पुतले से बाँध दिया जाता है। यदि कोई पुरूष परस्त्री गमन करता है तो उसको नारी जैसे अग्नि खंभ से बाँध दिया जाता है। अन्य अपराधियों को अन्य प्रकार की यातनाऐं दी जा रही थी। गिद्ध पक्षी, काॅग (कौवा) पक्षी उनको नौंच-नौंचकर खा रहे थे। जो नर-नारी शराब पीते हैं, उनको गर्म तेल पिलाया जा रहा था। जो साधु की निंदा करते हैं, उनको कुष्ट रोग (कोढ़ रोग) लगता है। फिर पृथ्वी के ऊपर भी उनको 84 लाख प्रकार के प्राणियों के शरीरों में कष्ट तथा मानव जन्म में भी भिन्न कष्ट कर्मानुसार भोगने पड़ते हैं।

राजा अमर सिंह नरक देखकर चित्र-गुप्त के लोक में दूतों के साथ आया। वहाँ पर परमेश्वर कबीर जी सिंहासन पर विराजमान थे। राजा भयभीत होकर परमेश्वर कबीर जी के चरणों में सिर रखकर बहुत दुखी मन से कहने लगा कि हे प्रभु! मेरी रक्षा करो, मुझे बचा लो। नरक की कथा सुनकर धर्मदास भयभीत हो गया तथा कहा कि आगे और बताओ परमेश्वर। परमेश्वर कबीर जी ने बताया कि जो पुण्य करता है, उसको स्वर्ग में भेज दिया जाता है और जो पाप करता है, वह नरक में कष्ट भोगता है। दोनों प्रकार के कर्मों को भोगने के पश्चात् अन्य प्राणियों के गर्भ में कष्ट, फिर जीवनभर कष्ट भोगना पड़ता है। इस चक्र में काल ने जीव को फँसा रखा है। परमेश्वर कबीर जी धर्मदास जी को सुना रहे हैं कि रविसुत यानि यमराज का एक सदन (parliament house) है। उसमें यमराज का सिंहासन मध्य में है। सामने खाली जगह है, तीन ओर यम के गण यानि यमदूत अकड़ के साथ अपने-अपने आसनों पर बैठे होते हैं। अन्य सिंहासनों पर वेद-शास्त्र के कर्ता-वक्ता, ऋषि-मुनि जैसे पारासर ऋषि और व्यास आदि-आदि सब ऋषिजन शरीर त्यागकर यमराज के कार्यालय में जाते हैं। वहाँ यमराज की सहायता करते हैं। पाप-पुण्य का हिसाब कराते हैं। जितने जीव (मानव) मृत्यु के पश्चात् वहाँ जाते हैं, सब मिलकर जीवों का पाप-पुण्य का निर्णय करने में सहयोग देते हैं। ये सब काल के नौकर हैं। अपनी आँखों हमने देखा है। धर्म-अधर्म का यथावत निर्णय सब मिलकर करते हैं। यह सब काल की सेना है। हे धर्मदास! चित्र-गुप्त प्रत्येक मानव के जीव के साथ रहते हैं। फिर वे अपना सारा लेखा-जोखा (account) मुख्य चित्र को चित्र तथा मुख्य गुप्त को जीव के साथ वाला गुप्त सर्व लेखा (ठपव.कंजं) देता है। प्रत्येक चित्र तथा गुप्त प्रत्येक जीव का पाप-पुण्य बोल-बोलकर सुनाता है। धर्मराय उनको यथार्थ न्याय के साथ प्रत्येक का दण्ड तथा स्वर्ग समय निर्धारित करके देता है। उसी अनुसार दूत जीवों को भुगतान कराते हैं। जो सुकर्म (धर्म करने वाला) है, उसको देवदूतों के साथ स्वर्ग में भेजा जाता है।

परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! और सुन कि क्या-क्या यातना किन अपराधों में दी जाती है? जो ब्रह्म हत्या (वेद-शास्त्र पढ़ने-पढ़ाने वाले ब्राह्मण) की हत्या करता है। उसको सर्वाधिक दण्ड दिया जाता है। जो विश्वासघात करता है, जो अपने गुरू या स्वामी की हत्या करता है, जो बच्चे या वृद्ध को मारता है, उनको उबलते तेल में डाला जाता है। अन्य अपराध:- जो परदार (परस्त्री) तथा परक्षेत्र को छीन लेता है, जो सीमा में गड़बड़ (हेराफेरी) करता है, वे भयंकर नरक में गिरते हैं। उनके सिर काटे जाते हैं। जो चोरी करता है, गुरूद्रोही, मदिरा पीने वाला, झूठ बोलने वाला, दूसरे की निंदा करने वाला है।

तिन पापीन को यम विकराला। भयंकर नरक माँझ तेही डाला।।

जो दूसरे की साधना में बाधा करता है, जो वेद-शास्त्र को नहीं पढ़ता, जो परमात्मा की चर्चा सुनकर जलता है, औरों का मन भी विचलित करता है, वह साकट व्यक्ति है। उसके तन को नरक में सूअर खाते हैं। जो मित्र को मारता है, वह घोर नरक में जाता है। जो गुरू के धन को हड़पता (चुराता) है, वह क्रीमी नरक (कीड़ों के कुण्ड) में डाला जाता है। जो गुरू पद पर विराजमान होकर व्याभिचार करता है, जो राजा प्रजा को कष्ट देता है, जो शिष्य भी बना है और शंका रखता है, जो न्यायधीश होकर पक्षपात करता है, वे घोर नरक के भागी बनते हैं। जो बिना देखे किसी में दोष निकालता है, उसकी आँखें यमदूत फोड़ते हैं। जो परतिय (परत्रीया) की इच्छा करता है, जो देव, गुरू और धर्म-शास्त्रों की निंदा करता है, उनको पहले सूलों (लोहे की पैनी कीलों) पर बैठाकर ऊपर से सूलों वाले मुगदर (मोगरों) से जख्म (घाव) यमदूत करते हैं। जो अपनी स्त्री को बिना बैराग के त्याग देता है या स्वयं अन्य स्त्री से लगाव करने के लिए अपनी स्त्री में दोष निकालकर छोड़ देता है। जो वैराग धारण करके अपनी स्त्री को त्याग जाता है तो वह दोषी नहीं होता, परंतु परमात्मा के वैराग में अपनी पत्नी को त्याग दिया, फिर अन्य से लगाव कर लिया, वे व्यक्ति नरक में डाले जाते हैं। उनको कितना समय नरक में भोगना पड़ेगा, कहने में नहीं आता। उनके हाथ और पैर बाँधकर यातना देते हैं।

चित्र तथा गुप्त तो पुण्य-पाप लिखते हैं, धर्मराज उनका न्याय करता है। अमर सिंह बोध पृष्ठ 82 तथा 83 पर भी पाप करने वालों को और क्या-क्या कष्ट नरक में दिया जाता है, बताया है। बुद्धिमान को संकेत ही पर्याप्त होता है।

जो माँस खाते हैं, शराब पीते हैं, उनको तपते (उबलते) तेल में डाला जाता है। उनके पेट के अंदर भी उबलता तेल डाला जाता है। इस प्रकार यातना दी जाती है।

‘‘धर्मदास बचन‘‘ {पृष्ठ 84(508)}

उपरोक्त नरक का वर्णन सुनकर धर्मदास व्याकुल हो गए। कबीर जी ने कहा है कि:-

‘‘सतगुरू बचन‘‘

सुनत वचन प्रभु मन विहँसाये। कही शब्द धर्मनि समुझाये।।
धर्मनि तुमही भय कछु नाही। सतगुरू शब्द है तुमरे पाही।।
और कथा सुनहु चितधारी। संशय मिटै तो होहु सुखारी।।
जब राजा विनती मम कीन्हा। तब हम ताहि दिलासा दीन्हा।।
शब्द गहै सो नाहि डराई। तुम किमि डरहु सुनहु हो राई।।
सत्य शब्द मम जे जिव पैहैं। काल फांस सो सबै नशैहैं।।
सुनत वचन राजा धरू धीरा। बोलै वचन काल बलबीरा।।

भावार्थ:- धर्मदास जी की व्याकुलता देखकर कहा कि हे धर्मदास! आपने तो दीक्षा ले रखी है। आपको तो सत्यनाम प्राप्त है, आपको कोई डर नहीं। परमेश्वर कबीर जी ने बताया कि राजा को भी चिंता बनी और कहा कि हे परमात्मा! अब क्या होगा? मैंने (कबीर जी ने) राजा को दिलासा दिया कि जो सत्य शब्द मेरे से ले लेगा, उसको कोई भय नहीं है। यह वचन सुनकर राजा को धैर्य हुआ। फिर चित्र-गुप्त बोले:-

चित्र-गुप्त बचन

है साहब तुम काह विचारो। नगर हमार उजारन धारो।।
हो साहब जो तुम अस करहू। न्याय नीति सबही तुम हरहू।।
सुनो साहब एक बात हमारी। पंथ तुम्हारा चले संसारी।।
ताते बिनती करैं बहोरी। सुनो गुसाइयाँ अरज मोरी।।
ब्रह्मा विष्णु शिव अधिकारी। तीन की आश जगतमहँ भारी।।
उनसे हम नहिं कबहुँ डरावैं। चूक चालैं तो ताहि नचावैं।।
और जीवकी कौन चलावै। हमते उबरन ऐको न पावें।।
सीधि चाल चलै जीव सुजाना। सो जीव देहों लोक पयाना।।
परपंच करै और साहेब को धावे। हम ते जीव जान नहिं पावे।।
चाल चलत लागै बडिबारा। ताते नाहीं दोष हमारा।।

भावार्थ:- चित्र-गुप्त ने कहा कि हे प्रभु! आप यह क्या कह रहे हो कि जो सत्य शब्द लेगा, उसको कोई कष्ट नहीं होगा, उसको दण्ड नहीं दिया जाएगा। आप तो हमारा नगर उजाड़ने (बर्बाद करने) आए हो। यदि आप ऐसा करोगे तो न्याय नीति सब नष्ट हो जाएगी। आपका पंथ संसार में ही चलेगा। वहाँ के मालिक ब्रह्मा-विष्णु तथा शिव हैं। वे भी हमसे डरते हैं। यदि वे भी गलती करते हैं तो हम उनको भी नचाते हैं यानि दण्डित करते हैं, और जीव की क्या चलेगी?

‘‘सतगुरू वचन‘‘

ज्ञानी कहे सुनो जमराई। हमरो हंसा न्यार रहाई।।
परपंच तुमरो देखि डराये। जीवघात कबहू नहिं लाये।।
निशिदिन जीव दया उर धारे। ज्ञान ग्रंथ मन माहिं बिचारे।।
अहो यमराय जाहु वैकुंठा। राजा विष्णुसों करावहु भेंटा।।

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि मेरा भक्त आप से भिन्न रहेगा। आप उनका हिसाब नहीं करोगे। मेरा भक्त परमात्मा से डरकर रहता है। वह तो दयाभाव वाला होता है। वह जीव हिंसा कभी नहीं करता। कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि अब मेरे को विष्णु से मिलाओ।

‘‘चित्र-गुप्त बचन‘‘

चित्र-गुप्त ने हाथ जोड़कर विनती की तथा कहा कि हे प्रभु! कोई गलती हुई तो क्षमा करना। आप मालिक हो, हम आपके दास हैं। चित्र-गुप्त के साथ मैं (कबीर जी) तथा राजा अमर सिंह विष्णु के महल के पास पहुँच गए। विष्णु मुझे देखकर खड़े हो गए। हमारे को बैठने के लिए सिंहासन दिया। उस समय भगवान विष्णु जी लक्ष्मी जी के साथ बैठे थे। अन्य देवी-देवता दर्शन के लिए खड़े थे। विष्णु जी ने कहा कि आपने दर्शन देकर हमको कृतार्थ किया। आप भूपति (राजा) को कैसे साथ लाए हो?

‘‘अमरसिंह राजा बचन‘‘

ओ भगवान सुनो मम वानी। सेवा तुम्हरी निष्फल जानी।।
हम एकोत्तर मंदिर बनावा। तामें मूरति लै पधरावा।।
साधु राखि मंदिर के मांही। छाजन भोजन दीना ताही।।
जेता धर्म हम सुने पुराना। विप्रन कहे धरम ठिकाना।।
सुरभी सोने सींग मढाई। पीतांबर पुनि ताहि ओढाई।।

भावार्थ:- राजा अमर सिंह ने भगवान विष्णु से कहा कि हे भगवान! मैंने आपके 101 मंदिर बनवाए। उनमें आपकी मूर्ति स्थापित की। आपका पुजारी रखा। उसके वेतन तथा भोजन का प्रबंध किया। जो भी वेद-पुराणों से पंडितों ने धर्म-कर्म बताया, सो सब किया। गाय की सींगों पर सोना चढ़वाकर उनको पीतांबर ओढ़ाकर सौ गाय ब्राह्मण को दान की। इस प्रकार आपकी पूजा की। फिर भी हमारे सिर पर कर्म-दण्ड लगाए हैं। श्री विष्णु जी ने कहा कि राजा लोग पाप भी बहुत करते हैं। शिकार करते हैं, जंगली जीवों को मारकर खाते हैं। पाप तो लगेगा ही। कबीर परमेश्वर जी ने बताया कि हे धर्मदास! मैंने उसी समय राजा अमर सिंह के सिर पर हाथ रखा। उसी समय उसके मुख से अनेकों कौवे निकले। यही लीला देखकर भगवान विष्णु शर्मिन्दे हो गए। आगे कुछ नहीं बोले। फिर मैं राजा अमरसिंह को मानसरोवर पर ले गया। वहाँ की शोभा देखकर राजा आश्चर्य में पड़ गया। वहाँ की कामनियों के शरीर की शोभा अनोखी है। राजा की पत्नी भी अति सुंदर थी, परंतु मानसरोवर की स्त्रियों के सामने सूर्य के सामने दीपक के समान थी। परमेश्वर कबीर जी ने राजा अमर सिंह को शरीर में प्रवेश करा दिया। पृथ्वी पर आकर राजा तथा रानी को आगे का मोक्ष मंत्र दिया। उसके पश्चात् उनकी सच्ची भक्ति श्रद्धा परखकर सारशब्द दिया। राजा अमर सिंह अपनी आँखों नरक का कष्ट तथा विष्णु जी की असमर्थता को देख चुका था तथा मानसरोवर पर सुंदर-अच्छे स्वभाव की स्त्रियाँ व मानसरोवर की शोभा देखकर सतलोक की सुंदरता की कल्पना कर रहा था कि वहाँ तो वास्तव में अद्भुत नजारा तथा सुख होगा। राजा ने मेरे (कबीर परमेश्वर) से कहा कि हे सतगुरू! पता नहीं कब मृत्यु होगी। लंबा समय है। हमारे परिवार को तुरंत सतलोक ले चलो। यहाँ अब नहीं रहा जाएगा। यह कहकर पूरा परिवार यानि राजा-रानी तथा पुत्र चरणों में गिरकर रोने लगे। राजा ने पुत्र तथा पत्नी को ऊपर का कष्ट, विष्णु जी से हुई वार्ता, मानसरोवर का नजारा वहाँ की शोभा बताई थी। राजा से ऊपर का वर्णन सुनकर रानी तथा पुत्र व अन्य 21 (इक्कीस) लाख नागरिक उपदेशी हुए और शीघ्र सतलोक चलने का बार-बार सच्चे दिल से आग्रह किया। उनकी भक्ति पूरी करवाकर मैंने (कबीर परमेश्वर जी ने) सबका शरीर छुड़वाकर विमान में बैठाकर सतलोक पहुँचाया। वहाँ जाकर सबके शरीर का सोलह सूर्यों जितना प्रकाश हो गया। परमात्मा ने उनको सीने से लगाया। सबने अमृत भोजन खाया। सतलोक में स्थाई निवास पाया। अमर मोक्ष प्राप्त हुआ।

शंका समाधान:- जैसा कि इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में स्पष्टीकरण किया है कि नकली कबीर पंथियों ने अपनी अल्प बुद्धि से वाणियों में फेरबदल किया है। अमर सिंह बोध के पृष्ठ 91 पर तो लिखा है कि सतलोक जाने के पश्चात् राजा और अन्य जीव जो नीचे से गए थे, उन सबका एक जैसा सोलह (षोडश) सूर्यों जैसे शरीर का प्रकाश हो गया। वहाँ पर राजा तथा रंक का कोई भेद नहीं रहता। फिर पृष्ठ 92 पर लिखा है कि सतपुरूष ने राजा के शरीर का प्रकाश करोड़ सूर्यों के प्रकाश के समान कर दिया और सिर पर राजाओं की तरह छत्र लगाया।

विचार करने की बात है कि एक तरफ तो पूरे ग्रन्थ में लिखा है कि सतलोक में सर्व हंस-हंसनी का सोलह सूर्यों जैसा तेजोमय शरीर है। यहाँ राजा का शरीर करोड़ सूर्यों के प्रकाश के समान लिखकर ग्रन्थ की सत्यता को बिगाड़ा है।

कबीर सागर के अध्याय ‘‘अमर सिंह बोध‘‘ का सारांश सम्पूर्ण हुआ।

‘‘सत साहेब‘‘

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