सुमिरन बोध

अध्याय सुमिरन बोध का सारांश

कबीर सागर में 37वां अध्याय सुमिरन बोध पृष्ठ 1742 पर है।

विवेचन:- पाठकों से बार-बार निवेदन किया है कि काल प्रेरित ज्ञानहीन कबीर पंथियों ने कबीर सागर के यथार्थ ज्ञान को समाप्त कर रखा है। उसकी पूर्ति परमेश्वर कबीर जी ने अपने अंश संत गरीबदास जी (गाँव-छुड़ानी, जिला-झज्जर, प्रान्त-हरियाणा) से कराई है। सुमिरन बोध के प्रारम्भ में आदि गायत्री का वर्णन है जो काटा गया है। फिर भी जो शेष है, उससे भी हमारा सत्यस्पष्ट हो जाता है।

पृष्ठ 1 पर छोटा सुमिरन बोध प्रारम्भ होता है। सुमिरन बोध के दो भाग लिखे हैं जबकि यह एक ही भाग है। प्रथम यानि छोटा सुमिरन बोध की वाणी।

सुमिरन आदि गायत्री

आदि गायत्री सुमिरन सारा। सुमिरन हंस उतारे पारा।।
कोटि अठासी घाट हैं। यम बैठे तहं रोक। आदि गायत्री सुमिरिके। हंसा होय निशोक।।
घाटि घाटिन नाखी आगे तब जाई। सकल दूत रहे पछताई।।
आगे मकर तार है डोरी। जहां यम रहे मुख मोरी।।
ओहं सोहं नाम के आगे करे पियान। अजर लोक बासा करे, जग मग द्वीप स्थान।।
आदि गायत्री सुमिरिके। आवा गमन नशाया।। सत्यलोक बासा करे। कह कबीर समझाय।।

भावार्थ:- ज्ञानहीन कबीर पंथियों ने कबीर परमेश्वर के यथार्थ ज्ञान को अज्ञान बना अड़ंगा करके लिखा है।

जैसा कि आप जी को बताया है कि यथार्थ ज्ञान परमेश्वर कबीर जी ने अपनी प्यारी आत्मा अपने नाद के सपूत यानि शिष्य गरीबदास जी द्वारा यथार्थ ज्ञान उजागर करवाया है। संत गरीबदास जी ने गायत्री मंत्र जो बताया है, वह शरीर में बने कमलों में विराजमान देवताओं की साधना का है जो जीव के घाट (मार्ग) को रोके बैठे हैं। इन देवताओं द्वारा रोके गए मार्ग गायत्री मंत्र से खुल जाते हैं। इन मंत्रों का नाम संत गरीबदास जी ने ब्रह्म गायत्री मंत्र कहा है। इनके द्वारा मार्ग छोड़ देने के पश्चात् सर्व देव अपने आप रास्ता छोड़ते चले जाते हैं। फिर यम के दूत भी उस साधक को बाधा नहीं करते। कबीर सागर के अध्याय ‘‘अनुराग सागर’’ में पृष्ठ पर भी पाँच नामों के स्मरण का प्रमाण है।

वाणी:-

पाँच नाम कही तब दल फेरा। पुरूष नाम लीन्हो तीहीं बारा।।

इन्हीं पाँच नामों वाले मंत्र ब्रह्म गायत्री का ज्ञान संत गरीबदास जी ने ‘‘ब्रह्म बेदी‘‘ नामक अध्याय यानि अंग में दिया है। ब्रह्मबेदी का कुछ अंश आगे लिखा है:-

‘‘ब्रह्म बेदी‘‘

ब्रह्म बेदी का अर्थ परमात्मा की भक्ति का सुसज्जित आसन जिसके ऊपर छतर या चाँदनी लगी हो, सुन्दर स्वच्छ गलीचा या गद्दा बिछा हो जैसे पाठ प्रकाश के समय श्री सद्ग्रन्थ साहेब का आसन तैयार करते हैं। भावार्थ है कि आत्मा में परमात्मा की बेदी बनाकर परमेश्वर को आसन-सिहांसन पर विराजमान करके उसकी स्तुति करें। संत गरीबदास जी की वाणी:-

वाणी:- ज्ञान सागर अति उजागर, निर्विकार निरंजनं। ब्रह्मज्ञानी महाध्यानी, सत सुकृत दुःख भंजनं।।1

सरलार्थ:- हे परमेश्वर! आप सर्व ज्ञान सम्पन्न हो, ज्ञान के सागर हो। आप अति उजागर अर्थात् पूर्ण रूप मान्य हो। सर्व को आपका ज्ञान है कि परमात्मा परम शक्ति है। इस प्रकार आपका सर्व को ज्ञान है। यह तो उजागर अर्थात् स्पष्ट है कि परमात्मा समर्थ है। आप निर्-विकार निरंजन हो। आप में कोई दोष नहीं, कोई विषय-विकार नहीं है। आप वास्तव में निरंजन हैं। निरंजन का अर्थ है माया रहित अर्थात् निर्लेप परमात्मा। काल भी निरंजन कहलाता है। वास्तव में वह निरंजन नहीं है, वह ज्योति निरंजन है। काल निरंजन है, वह निर्विकार निरंजन नहीं है। हे परमात्मा! आप ब्रह्म ज्ञानी हैं। परमात्मा का ज्ञान अर्थात् अपनी जानकारी आप ही प्रकट होकर बताते हैं। इसलिए आप ब्रह्म ज्ञानी हो। अन्य नकली ब्रह्म ज्ञानी हैं। हे परमात्मा! आप महाध्यानी हैं। आप सर्व प्राणियों का ध्यान रखते हो। इस कारण से आप जैसा ध्यानी कोई नहीं। आप सत सुकृत अर्थात् सच्चे कल्याणकर्ता हो। आप अपने भक्त का दुःख नाश करने वाले हैं।(1)

अब वाणी सँख्या 2 से 8 तक मानव शरीर में बने कमलों का वर्णन संत गरीबदास जी ने किया है। साथ में उनके कमलों को विकसित करने के मंत्र भी बताए हैं। परंतु इन मंत्रों के जाप की विधि केवल मेरे को (संत रामपाल दास को) पता है तथा भक्तों को नाम देने की आज्ञा भी मुझे ही है। यदि कोई इन मंत्रों को जान पढ़कर जाप करेगा तो उसको कोई लाभ नहीं होगा।

पहले यह मानव शरीर में बने कमलों का चित्र देखें:-

वाणी:- मूल चक्र गणेश बासा, रक्त वर्ण जहां जानिये। किलियं जाप कुलीन तज सब, शब्द हमारा मानिये।।2

सरलार्थ:- मानव शरीर में एक रीढ़ की हड्डी (Spine) है जिसे Back Bone भी कहते हैं। गुदा के पास इसका निचला सिरा है। इस रीढ़ की हड्डी के साथ शरीर की ओर गुदा से एक इन्च ऊपर मूल चक्र (कमल) है जिसका रक्त वर्ण अर्थात् खून जैसा लाल रंग है। इस कमल की चार पंखुड़ियाँ हैं। इस कमल में श्री गणेश देव का निवास है। हे साधक! इस कमल को खोलने के लिए किलियम् नाम का जाप कर और सब कूलीन अर्थात् नकली व्यर्थ नामों का जाप त्याग दे, हमारे वचन पर विश्वास करके मान लेना।(2)

वाणी:- स्वाद चक्र ब्रह्मादि बासा, जहां सावित्री ब्रह्मा रहैं। ॐ जाप जपंत हंसा, ज्ञान जोग सतगुरु कहैं।।3

सरलार्थ:- मूल चक्र से एक इन्च ऊपर स्वाद कमल है। इस कमल में सावित्री तथा ब्रह्मा जी का निवास है। इस कमल को विकसित करने के लिए ओम् (ॐ) नाम का जाप कर। यह भेद परमेश्वर कबीर जी ने मुझे (संत गरीबदास जी से) सतगुरू रूप में प्रकट होकर कहा है। (3)

वाणी:- नाभि कमल में विष्णु विशम्भर, जहां लक्ष्मी संग बास है। हरियं जाप जपन्त हंसा, जानत बिरला दास है।।4

सरलार्थ:- शरीर में बनी नाभि तो पेट के ऊपर स्पष्ट दिखाई देती है। इसके ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी के ऊपर यह नाभि चक्र (कमल) है। इसमें लक्ष्मी जी तथा विष्णु जी का निवास है। इस कमल को विकसित करने के लिए हरियम् नाम का जाप करना चाहिए। इस गुप्त मंत्र को कोई बिरला ही जानता है जो सतगुरू का भक्त होगा।(4)

वाणी:- हृदय कमल महादेव देवं, सती पार्वती संग है। सोहं जाप जपंत हंसा, ज्ञान जोग भल रंग है।।5

सरलार्थ:- हृदय कमल की स्थिति इस प्रकार है:- छाती में बने दोनों स्तनों के मध्य स्थान में ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी पर यह हृदय कमल बना है, दिल अलग अंग है। हृदय मध्य को भी कहते हैं। जैसे यह बीच (मध्य) का कमल है। तीन इससे नीचे तथा तीन ऊपर बने हैं। इस कारण से इसको हृदय कमल के नाम से जाना जाता है। इस कमल में महादेव शंकर जी तथा सती जी (पार्वती जी) रहते हैं। इस कमल (चक्र) को विकसित करने का नाम मंत्र सोहम् जाप साधक को जपना चाहिए। जो ज्ञान योग में वास्तविक ज्ञान मिला है, यह अच्छा रंग अर्थात् शुभ लगन का कार्य है। इस यथार्थ ज्ञान के रंग में रंगे जाओ।(5)

वाणी:- कंठ कमल में बसै अविद्या, ज्ञान ध्यान बुद्धि नासही। लील चक्र मध्य काल कर्मम्, आवत दम कुं फांसही।।6

सरलार्थ:- गले के पीछे रीढ़ की हड्डी के ऊपर यह कण्ठ कमल बना है। इसमें अविद्या अर्थात् दुर्गा जी का निवास है। जिसके प्रभाव से जीव का ज्ञान तथा भक्ति के समय ध्यान समाप्त होता है तथा बुद्धि को भ्रष्ट करती है दुर्गा। यह लील चक्र अर्थात् 16 पंखुड़ियों का यह चक्र है। इसी के साथ सूक्ष्म रूप में काल निरंजन भी रहता है। दुर्गा देवी जी काल निरंजन की पत्नी है। काल ने गुप्त रहने की प्रतिज्ञा कर रखी है। ये दोनों मिलकर भक्त के अध्यात्म ज्ञान तथा ध्यान को तथा श्वांस से किए जाने वाले नाम स्मरण को भुलाते हैं। इस कमल को विकसित करने का श्रीयम् मंत्र है।(6)

वाणी:- त्रिकुटी कमल परम हंस पूर्ण, सतगुरु समरथ आप है। मन पौना सम सिंध मेलो, सुरति निरति का जाप है।।7

सरलार्थ:- मस्तिष्क का वह स्थान जो दोनों आँखों के ऊपर बनी भौवों (सेलियों) के मध्य जहाँ टीका लगाते हैं, उसके पीछे की ओर आँखों के पीछे यह त्रिकुटी कमल है। इसमें पूर्ण परमात्मा सतगुरू रूप में विराजमान हैं। इस कमल की दो पंखुड़ियाँ हैं। एक का सफेद रंग है, दूसरी का काला रंग है। यहाँ पर विराजमान सतगुरू के सारनाम का जाप सुरति निरति से किया जाता है। वह उपदेशी को बताया जाता है।(7)

वाणी:- सहंस कमल दल भी आप साहिब, ज्यूं फूलन मध्य गन्ध है। पूर रह्या जगदीश जोगी, सत् समरथ निर्बन्ध है।।8

सरलार्थ:- सहंस्र कमल दल का स्थान सिर के ऊपरी भाग में कुछ पीछे की ओर है जहाँ पर कुछ साधक बालों की चोटी रखते हैं। वैसे भी बाल छोटे करवाने पर वहाँ एक भिन्न निशान-सा नजर आता है। इस कमल की हजार पंखुड़ियाँ हैं। इस कारण से इसे सहंस्र कमल कहा जाता है। इसमें काल निरंजन के साथ-साथ परमेश्वर की निराकार शक्ति भी विशेष तौर से विद्यमान है। जैसे भूमध्य रेखा पर सूर्य की उष्णता अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक रहती है। वह जगदीश ही सच्चा समर्थ है, वह निर्बन्ध है। काल तो 21 ब्रह्माण्डों में बँधा है। सत्य पुरूष सर्व का मालिक है।(8)

वाणी:- मीनी खोज हनोज हरदम, उलट पन्थ की बाट है। इला पिंगुला सुषमन खोजो, चल हंसा औघट घाट है।।9

सरलार्थ:- जैसे मछली ऊपर से गिर रहे जल की धारा में उल्टी चढ़ जाती है। इसी प्रकार भक्त को ऊपर की ओर सतलोक में चलना है। उसके लिए इला (इड़ा अर्थात् बाईं नाक से श्वांस) तथा पिंगुला (दांया स्वर नाक से) तथा दोनों के मध्य सुष्मणा नाड़ी है। उसको खोजो। फिर हे भक्त! ऊपर को चल जो औघट घाट अर्थात् उलट मार्ग है। संसार के साधकों का मार्ग त्रिकुटी तक है। संत मार्ग (घाट) इससे और ऊपर उल्टा चढ़ने का मार्ग (घाट) है। यह सुष्मणा सतनाम के जाप से खुल जाता है।(9)

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट हुआ कि ब्रह्म गायत्री में किन-किन देवों की साधना है। ये मंत्र इनकी पूजा के नहीं हैं। ये मार्ग खाली कराने के हैं।

आगे लिखा है कि:-

ओहं (ओम्) सोहं नाम से आगे करे पयान। अजर लोक बासा करे जगमग द्वीप स्थान।।

भावार्थ:- सतनाम की ओर संकेत है। सत्यनाम दो मंत्रों का है। ॐ-सोहं। इसका जाप श्वांस-उश्वांस से करना होता है। इसके स्मरण से संहस्र कमल से आगे चलना है।

कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ के पृष्ठ 62 (486) पर परमेश्वर कबीर जी ने अपने परम भक्त धर्मदास जी को सत्यनाम की दीक्षा दी थी। उनको यह दो अक्षर का नाम जाप करने को कहा था।

सतगुरू सो सतनाम लखावै। सतलोक ले हंसन पहुँचावै।।
ओहं (ओम्) सोहं जावन बीरू। धर्मदास सों कहै कबीरू।।

भावार्थ:- सतगुरू वही पूर्ण है जो सत्यनाम बताता है और सत्यनाम को देकर सतलोक ले जाता है। वह सत्यनाम दो अक्षर ओहं (ओम्) तथा सोहं है जो परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को बताया था। इसके बारे में परमेश्वर कबीर जी ने सतर्क किया था कि:-

धरि हो गोय कहिहौ जी ना काही। नाद सुशील लखैंहो ताही।।
सुमिरण दया सेवा चित धरई। सत्यनाम गहि हंसा तरई।।

ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 63 पर:-

सत्यनाम सुमिरण करै, सतगुरू पद निज ध्यान। आत्म पूजा जीव दया, लहै सो मुक्ति अमान।।

ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 62 पर:-

पुरूष नाद सुत षोडश आही। नाद पुत्र शिष्य शब्द जो लैही।।

भावार्थ:- सत्यनाम का सुमिरण करना है। गुरू जी द्वारा पद यानि पद्धति के अनुसार स्मरण करना है। जैसे परमेश्वर ने वचन (नाद) से 16 पुत्र उत्पन्न किए तो वे नाद पुत्र कहलाए। इसी प्रकार गुरू का नाद पुत्र वह कहा जाता है जो उपदेश लेकर शिष्य बनता है।

सतनाम की भक्ति की कमाई (स्मरण का संग्रह) अधिक हो जाने के पश्चात् ‘‘सार शब्द‘‘ दिया जाता है। इस प्रकार दीक्षा को तीन चरणों में पूरा किया जाता है। यही प्रमाण कबीर सागर के अध्याय ‘‘अमर मूल‘‘ पृष्ठ 265(1111) पर है। कहा है कि:-

धर्मदास मैं कहों बिचारी। जिहितें निबहै सब संसारी।।
प्रथम शिष्य होय जो आई। ता कहूं पान देहुं तुम भाई।।

यह प्रथम मंत्र के लिए कहा है। फिर सतनाम देने को कहा है:-

जब देखो तुम दृढ़ता ज्ञाना। ता कहं कहूं (सत) शब्द प्रवाना।।

यह सत्यनाम देने को कहा है। इसके पश्चात् सार शब्द देने का संकेत दिया है।

शब्द माहीं जब निश्चय आवै। ता कहं ज्ञान अगम सुनावै।।

इसी प्रक्रिया को दोबारा स्पष्ट किया है।

धर्मदास तुम कहौ सन्देशा। जो जस जीव ताहि उपदेशा।।
बालक सम जाकर है ज्ञाना। तासौं कहहू बचन प्रवाना।।

यह प्रथम मंत्र यानि ब्रह्म गायत्री देने के लिए कहा है।

जा कहं सूक्ष्म ज्ञान है भाई। ता कहं सुमरन देहु लखाई।।

यह सत्यनाम देने को कहा है।

ज्ञान गम्य जा कहं पुनि होई। सार शब्द जा कहं कहु सोई।।

कबीर सागर के अध्याय ‘‘बीर सिंह बोध‘‘ में पृष्ठ 113 (537) पर बीर सिंह राजा को प्रथम नाम देने का वर्णन है। पृष्ठ 114 (538) पर सत्यनाम देने का वर्णन है। पृष्ठ 115 (539) पर सार शब्द देने का वर्णन है।

बीर सिंह राजा तथा उसकी रानी को प्रथम नाम दिया:-

बीर सिंह बोध पृष्ठ 113 (537):-

कबीर बचन-चौपाई

करि आरति तब नारियर मोरा। कारी आरति पुनि भयो भोरा।।
तिनका तोरी पान लिखि दयऊ। रान-राय (राजा) अपन करि लयऊ।।
बहुतक जीव पान मम् पाये। ता घट पुरूष नाम सात आये।।
इसके कुछ दिन पश्चात् राजा ने सतनाम देने की प्रार्थना की।

बीर सिंह बोध पृष्ठ 114 (538) पर:-

भव सिन्धु अति विकराल दारूण, तासु तत्त्व बुझायऊ। अजर बीरा नाम दै मोहि, पुरूष दरश करायऊ।।

कबीर वचन

राय श्रवण (कान) नाम सुनायी। तब प्रतीत (विश्वास) राजा जीव आई।।
सत्य पुरूष सत्य फूला। सत्य शब्द (सतनाम) है जीव को मूला।।
सत्यनाम जीव जो पावै। सोई जीव तेहि लोक समावै।।
सोई नाम राजा जो पाये। सत्य पुरूष दर्शन चित लाये।।

बीर सिंह बोध पृष्ठ 115(539) पर सार शब्द देने का प्रमाण:-

‘‘राजा बीर सिंह बचन-चैपाई‘‘

साहब सार शबद मोहि दीजै। आपन करि प्रभु निज कै लीजै।।

बीर सिंह बोध पृष्ठ 116 (540) पर:-

‘‘कबीर बचन‘‘

अजर नाम चैका विस्तारो। जेहि ते पुरूष (जीव) तरै तुम्हारो।।
गाँव तुम्हारे। ब्राह्मणी जाति। धोती वाने कीन्ही बहु भांति।।
बारी मांही कपास लगायी। बहुत नेम से काती बुनायी।।
सो धोती तुम राजा लाओ। पीछै चैका जुगति बनाऊ।।

विवेचन:- सार शब्द देने के लिए परमेश्वर कबीर जी ने शर्त रखी थी कि हे राजन्! तेरी काशी नगरी में एक ब्राह्मणी रहती है। वह मेरी शिष्या है। उसने एक धोती बनाई है। वह धोती आप लाओ तो सार शब्द मिलेगा। पाठकों से निवेदन है कि पूरी जानकारी के लिए कृपया पढ़ें इसी पुस्तक के बीर सिंह बोध के सारांश में पृष्ठ 195 पर।

अध्याय ‘‘बीर सिंह बोध’’ पृष्ठ 119 (543) पर कबीर परमेश्वर जी ने उसको सार शब्द दियाः-

‘‘कबीर बचन‘‘

जब हम राजा दीन बुझाई। अजर आरती साज मंगाई। अगर चैंका तब कर दीना। मन प्रतीत राजा गह लीना।।

‘‘राजा बीर सिंह वचन‘‘

सोरठा - तव चरण बलिहार, पाछिल पुरूषा मम तारे। धन-धन धनी हमार, काग ते हंसा किये।।

भावार्थ:- उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट हुआ कि कबीर परमेश्वर जी तीन बार में यानि तीन चरणों में पूर्ण मोक्षा दीक्षा का क्रम पूरा करते थे। यही यथार्थ नाम तथा दीक्षा क्रम यह दास (रामपाल दास) सन् 1994 से दे रहा है।

सुमिरण बोध (छोटा) पृष्ठ 2 पर:-

ओहं सोहं नाम से आगे करै पयान। अजर लोक वासा करै जगमग द्वीप स्थान।।

यह दो अक्षर का सत्यनाम है जिसके विषय में पहले वर्णन किया है। परमेश्वर कबीर जी ने यही नाम संत गरीबदास जी (गाँव-छुड़ानी, जिला-झज्जर, प्रान्त-हरियाणा) को दिया था। संत गरीबदास जी ने कहा:-

राम नाम जप कर थिर होई। ओहं-सोहं मंत्र दोई।।

भावार्थ:- राम नाम जपकर पूर्ण मोक्ष प्राप्त करो। वह राम नाम दो अक्षर का ओहं-सोहं है।

सार शब्द: इसका वर्णन नहीं करूँगा। यह उपदेश लेने वाले को दीक्षा के समय सुनाया-समझाया जाएगा।

संत गरीबदास जी ने सुमरण के अंग में कहा है:-

सोहं ऊपर और है, सत्य सुकृत एक नाम। सब हंसों का बंस है, नई बस्ती नई ठाम।।

पूर्ण मंत्र तीन नाम का बनता है जिसके विषय में श्रीमद् भगवत गीता में अध्याय 17 श्लोक 23 में कहा है:-

ओम् (ॐ) तत् सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविधैः स्मृतः। ब्राह्मणा तेन वेदा च यज्ञा विहिता पुराः।।

सरलार्थ:- पूर्ण परमात्मा यानि सच्चिदानंद घन ब्रह्म के स्मरण का तीन मंत्र ॐ-तत्-सत् का निर्देश है। सृष्टि की आदि में तत्त्वज्ञानी इसी ज्ञान के आधार से यज्ञ यानि धार्मिक अनुष्ठान करते थे तथा तीन नाम का स्मरण करते थे।

परमेश्वर कबीर जी का एक शब्द है ‘‘कर नैनों दीदार महल में प्यारा है‘‘ इसमें ब्रह्म गायत्री के पाँचों नाम का वर्णन है जो संत गरीबदास जी ने ‘‘ब्रह्म बेदी‘‘ में बताए हैं। कृप्या पढ़ें इसी पुस्तक में ‘‘अनुराग सागर’’ के सारांश में पृष्ठ 154 पर।

  • सुमिरन बोध (छोटा-बड़ा) पृष्ठ 2 से 14 तक कर्म काण्ड लिखा है जो कबीर पंथियों की अपनी रोजी-रोटी के लिए रचना की गई है।

सुमिरण बोध पृष्ठ 15 पर:-

पुहुप दीप मण्डप गुरू सांचा। हंस सोहंग नाम बीच राजा।।
सोहं शब्द नाम है सारा। सत्य बचन बोले कड़िहारा।।
एकोतर (101) नाम जानै विस्तारा। सो जानों साचा कड़िहारा।।
पांच नाम इन्हीं में भाषा। सहज पक्ष पालन है साषा।।

सुमिरण बोध पृष्ठ 16 पर:-

सुरति सोहं शब्द है गगन ध्यान लौलीन। एकटक सुमरो संतों जम होय बलहीन।।
सोहं शब्द निज साच है जपो अजपा जाप। कहै कबीर धर्मदास सों सारशब्द गरगाप।।
सोहं शब्द निज साच है गहि राखो तुम पास। सोहं शब्द में मुक्ति है सत्य मानो धर्मदास।।

विवेचन:- सुमिरन बोध का सार यह है:-

धर्मदास की गद्दी वाले जो नाम देते हैं, सुमिरन बोध पृष्ठ 22 पर लिखा है:-

माला कण्ठी नाम की, सतगुरू शब्द विचार। बाद विवाद जो करै, ताके मुख परे छार।।

‘‘स्मरण पाँच नाम‘‘

आदि नाम, अजर नाम, अमीनाम, पाताले सप्त सिंधु नाम।
आकाशे अदली निज नाम, एही नाम हंस को काम।।
खोलो कुंची खोलो कपाट। पांजी चढ़े मूल के घाट।।
भ्रम भूत का बांधो गोला, कहैं कबीर प्रवान।
पाँच नाम ले हंसा सत्यलोक समान।।

भावार्थ:- ये उपरोक्त नाम जाप करने के नहीं हैं। ये तो पाँच नामों की महिमा बताई जो इसी अध्याय में ब्रह्म बेदी वाले लिखे हैं। वे नाम अजर हैं, आदि के हैं। अमृत स्वरूप हैं। सप्त सिंधु का अर्थ है पृथ्वी। पाताल से तात्पर्य है नीचे के सात पाताल। आकाश का अर्थ है ऊपर के ब्रह्म लोक तथा ब्रह्मा, विष्णु, शिव के लोक। इनसे सब कमलों के कपाट यानि किवाड़ खुल जाते हैं। यह इन कमलों को खोलने की कूंजी यानि ज्ञमल है। पांजी यानि पाँच नाम प्राप्त भक्त मूल घाट यानि मूल कमल (गणेश जी का है) से चलेगा। ऊपर के सब कमल पाँच नामों से खुलते चले जाएंगे।

‘‘स्मरण दीक्षा मंत्र‘‘

सत्य सुकृत की रहनी रहै, अजर अमर गहै सत्यनाम। कहै कबीर मूल दीक्षा सत्य (सार) शब्द प्रवान।।

भावार्थ:- इसमें सत्यनाम तथा सार शब्द की महिमा बताई है। कहा है कि मर्यादा में रहकर शुभ कर्म करे और मोक्ष करने के मंत्र अजर-अमर करते हैं। वे सत्यनाम तथा सार शब्द मूल दीक्षा यानि मुख्य दीक्षा है।

कबीर पंथी दामाखेड़ा वाले उपरोक्त नामों को दीक्षा में देते हैं जो धर्मदास की छठी पीढ़ी वाले गद्दी वाले महंत ने वास्तविक मंत्र त्यागकर शुरू किए थे जिसका टकसारी पंथ जो बारह (12) कबीर पंथों में पाँचवां है। उसने धर्मदास की छठी पीढ़ी वाले को भ्रमित कर शुरू कराए थे जो गलत है।

सुमिरन बोध पृष्ठ 23 से 30 तक व्यर्थ की मनघड़न्त बातें हैं।

सुमिरन बोध पृष्ठ 31 पर:-

‘‘चार गुरूओं के नाम लोक के और भवसागर के‘‘

विवेचन:- पृष्ठ 31 की इस फोटोकाॅपी से स्पष्ट है कि ये वाणी कांट-छांटकर लिखी हैं। चार गुरू के नाम-लोक और परलोक में दोहा नं. 16 है। फिर दोहा नं. 27 है, फिर दोहा नं. 24 है। ये कहीं-कहीं से उठाकर लिखे हैं, सत्य वाणी छोड़ दी है।

इसमें यह भी स्पष्ट है कि

  1. चतुर्भुज गुरू ‘‘सामवेद‘‘ का ज्ञान प्रचार करता था, मूल ज्ञान की वाणी लेकर पंथ चलाया। यह काल पुरूष द्वारा चलाए 12 पंथों में भी है।

  2. यह बंकेजी के विषय में है और यह यजुर्वेद का प्रचार करता था। यह टकसारी पंथ वाला है जो काल द्वारा कबीर नाम से चलाए बारह पंथों में पाँचवां है जिसने धर्मदास की छठी पीढ़ी वाले से वास्तविक मंत्र जो परमेश्वर कबीर जी ने दिए थे, छुड़वाकर नकली नाम तथा आरती-चैंका प्रारम्भ करवाया था जो वर्तमान सन् 2013 तक चल रहा है।

  3. धर्मदास जी ने बताया है और कहा है कि यह ऋग्वेद का प्रचार करता था। जम्बूदीप (भारत) में बांधवगढ़ में उत्पन्न हुए।

  4. चैथे सहत जी बताऐ हैं। ये अथर्ववेद का प्रचार करते थे। उपरोक्त वर्णन पहले लिए इन्हीं चार गुरूओं का आपस में मेल नहीं करता।

विशेष बात यह है कि चारों गुरू एक-एक वेद का प्रचार करते थे तो वे पूर्ण ब्रह्म का प्रचार नहीं करते थे। इन चारों वेदों में सम्पूर्ण यथार्थ ज्ञान नहीं है तो अज्ञानी गुरू सिद्ध हुए। काँट-छाँट भी आप जी ने स्पष्ट देखी है।

इससे स्पष्ट है कि कबीर सागर के ज्ञान का नाश कर रखा है जो अब मुझ दास द्वारा परमेश्वर कबीर जी की कृप्या से मेरे पूज्य गुरू स्वामी रामदेवानंद जी के आशीर्वाद से यथार्थ ज्ञान बताया जा रहा है।

सुमिरन बोध के पृष्ठ 32 से 34 तक व्यर्थ वाणी लिखी हैं जिनका कोई सिर-पैर नहीं है।

सुमिरन बोध पृष्ठ 35 से 50 तक गुरू महिमा है।

सूक्ष्मवेद (तत्त्वज्ञान) से स्वंय परमात्मा अपने मुखकमल से बोलते हैं। विस्तार के साथ यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों का ज्ञान कराते हैं। गीता अध्याय 4 श्लोक 32 में भी कहा है कि ब्रह्मणः मुखे = सच्चिदानन्द घन ब्रह्म की वाणी में यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों की जानकारी विस्तार के साथ कही गई है। वही ज्ञान कबीर वाणी है। कबीर जी ने गुरु की महिमा बताई है:-

वाणी:- गुरु ते अधिक न कोई ठहरायी। मोक्षपंथ नहिं गुरु बिनु पाई।।(1)
राम कृष्ण बड़ तिहुँपुर राजा। तिन गुरु बंदि कीन्ह निज काजा।।(2)

**सरलार्थ:- गुरु से अधिक किसी को नहीं मानें। गुरु के बिना मोक्ष का रास्ता (भक्ति विधि) प्राप्त नहीं हो सकती। उदाहरण बताया है कि श्री राम तथा श्री कृष्ण जी को तो आप हिन्दू भगवान मानते हैं। इनसे बड़े तो आप नहीं हैं। जब श्री राम तथा श्री कृष्ण ने भी गुरु बनाए और उनको अर्थात् अपने गुरुदेवों को नमन किया। उनके सामने एक भक्त की तरह आधीन बनकर रहे। उनकी आज्ञा का पालन किया तो आप जी को भी गुरु बनाकर उपदेश दीक्षा लेकर साधना करनी चाहिए। श्री राम तथा श्री कृष्ण तो तीन लोक में बड़े हैं। उन्होंने भी गुरु को बन्दगी (प्रणाम) करके अपने निजी कार्यों को किया, उनकी आज्ञा मानी।(1-2)

वाणी:- गेही भक्ति सतगुरु की करहीं। आदि नाम निज हृदय धरहीं।।(3)
गुरु चरणन से ध्यान लगावै। अंत कपट गुरु से ना लावै।।(4)

सरलार्थ:- ग्रहस्थी व्यक्ति को गुरु धारण करके गुरुजी के बताए अनुसार भक्ति करनी चाहिए तथा आदि नाम जो वास्तविक तथा सनातन साधना के नाम मन्त्र हैं, उनको हृदय से स्मरण करना चाहिए। गुरुजी के चरणों में ध्यान रखें अर्थात् गुरु जी को किसी समय भी दिल से दूर न करें तथा अंत = अर्थात् अन्तः करण में कभी भी गुरु से छल-कपट नहीं रखना चाहिए।(3-4)

वाणी:- गुरु सेवा में फल सर्बस आवै। गुरु विमुख नर पार न पावै।। (5)
गुरु वचन निश्चय कर मानै। पूरे गुरु की सेवा ठानै।।(6)

सरलार्थ:- गुरुजी की सेवा में सब फल यानि सब सुख आदि प्राप्त होते हैं तो गुरु धारण करके फिर गुरुजी से दूर हो जाते हैं। गुरुजी में कोई दोष निकालते हैं। जो भक्ति नहीं करते हैं या भक्ति त्याग देते हैं, गुरु विमुख कहे जाते हैं। वे व्यक्ति कभी संसार सागर से पार नहीं हो सकते। पूर्ण गुरु से दीक्षा लेकर गुरु सेवा करते हुए साधना करनी चाहिए और गुरुजी के वचनों का पालन निश्चय अर्थात् विश्वास के साथ करें।(5-6)

वाणी:- गुरुकी शरणा लीजै भाई। जाते जीव नरक नहीं जाई।।(7)
गुरु कृपा कटे यम फांसी। विलम्ब ने होय मिले अविनाशी।।(8)

सरलार्थ:- हे भाई! हे मानव! गुरुजी की शरण प्राप्त कर, जिस कारण से जीव नरक में नहीं जाएगा। या तो पार हो जाएगा या पुनः मानव जन्म (स्त्राी-पुरुष) का प्राप्त करेगा। मानव जन्म मिलेगा तो फिर सतगुरु भी मिलेगा। इस प्रकार गुरु बनाकर भक्ति करने से मोक्ष मिलता है। गुरुजी की कृपा से यम द्वारा लगाई गई कर्मों का बन्धन रूपी गले की फाँस कट जाती है, अविलम्ब अविनाश परमात्मा (सत्य साहेब) मिल जाता है।(7-8)

वाणी:- गुरु बिनु काहु न पाया ज्ञाना। ज्यों थोथा भुस छड़े किसाना।।(9)

सरलार्थ:- गुरु जी के बिना किसी को आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त नहीं होता। जो नकली गुरु से ज्ञान प्राप्त करके शास्त्रविरुद्ध साधना करते हैं या मनमुखी साधना स्वयं एक-दूसरे को देखकर करते हैं, वे तो ऐसा कर रहे हैं कि जैसे मूर्ख किसान थोथे भूस अर्थात् धान की पराल (भूसा) या सरसों का झोड़ा (भूसा) जिसमें से चावल या धान तथा सरसों निकल गयी हो और भूखा पड़ा हो, इस भूसे को कूट रहा हो या छिड़ रहा हो। वर्तमान में धान को पटक-पटककर धान तथा भूसा भिन्न-भिन्न करते हैं, परन्तु केवल भूस को छिड़ाने यानि कूटने से धान-सरसों प्राप्त नहीं होती। प्रयत्न मेहनत उतनी ही करता है जो व्यर्थ रहती है और कुछ हाथ नहीं लगता। ठीक उसी प्रकार पूर्ण गुरु से दीक्षा तथा ज्ञान प्राप्त किए बिना किया गया भक्ति कर्म उसी प्रकार व्यर्थ है जैसे भूसा छिड़ाने (कूटने) वाले को कुछ भी प्राप्ति नहीं होती। श्री मद्भगवत गीता अध्याय 4 श्लोक 32 से 41 तक भी यही प्रमाण है कि यथार्थ भक्ति ज्ञान अर्थात् तत्त्वज्ञान को यज्ञ अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान का विस्तार से ज्ञान (तत्त्वज्ञान = सूक्ष्मवेद) ब्रह्मणः मुखे अर्थात् सच्चिदानन्द घन ब्रह्म के मुख कमल से बोली अमृतवाणी में कहा गया है। उसे जानकर तू सब पापों से मुक्त हो जाएगा।(गीता अध्याय 4 श्लोक 32)

  • हे अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ (तत्त्वज्ञान) श्रेष्ठ है। सर्व कर्म जो शास्त्र विरुद्ध साधना द्वारा किए जाते है, वे सम्पूर्ण ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं। भावार्थ है कि शास्त्रों के अनुकूल ज्ञान (तत्त्वज्ञान) न होने के कारण लोकवेद (दंत कथा) के आधार से कोई कम्बल दान कर देता है, कोई प्याऊ लगवा देता है, कोई भोजन-भण्डारा (लंगर) लगवा देता है, कोई सवा मणी (50 सेर मिठाई बाँटने का धर्म में) लगाते हैं। यदि तत्त्व ज्ञान नहीं है तो यह द्रव्यमय यज्ञ (जो धन से होने वाले धार्मिक अनुष्ठान जो बताऐ हैं) की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अर्थात् जो धार्मिक यज्ञ हम कर रहे हैं, ये शास्त्रानुकूल भी है कि नहीं, यह ज्ञान होना श्रेष्ठ है। उसके पश्चात् धार्मिक कर्म करना उचित है।(गीता अध्याय 4 श्लोक 33)

  • जो ज्ञान गीता अध्याय 4 श्लोक 32 में स्वयं परमेश्वर बताते हैं, वह तत्त्वज्ञान है। उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी सन्तों के पास जाकर समझ। उनको दण्डवत् प्रणाम करने से नम्रतापूर्वक प्रश्न करने से वे तत्त्वदर्शी सन्त जो परमात्म तत्त्व को भली-भांति जानने वाले हैं, तुझे तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे। (गीता अध्याय 4 श्लोक 34)

  • जिस तत्त्वज्ञान को जानकर फिर तू इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन! जिस ज्ञान के द्वारा तू प्राणियों को पूर्ण रूप से पूर्ण परमात्मा जो आत्मा के साथ अभेद रूप में रहता है, उस पूर्ण परमात्मा में और पीछे मुझे देखेगा कि मैं काल हूँ, यह जान जाएगा।(गीता अध्याय 4 श्लोक 35)

  • यदि तू सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञान रुपी नौका द्वारा सम्पूर्ण पाप समुद्र से भली-भाँति तर जाएगा।(गीता अध्याय 4 श्लोक 36)

  • हे अर्जुन! जैसे अग्नि घास को जला देती है, वैसे ही तत्त्वज्ञान में बताई शास्त्रानुकूल भक्ति की साधना पाप कर्मों को जलाकर भस्म कर देती है।(गीता अध्याय 4 श्लोक 37)

सूक्ष्मवेद में भी कहा है कि:-

वाणी:- गुरु बिन वेद पढ़े जो प्राणी। समझे ना सार रहे अज्ञानी।।

जब ही सत्य नाम हृदय धरो, भयो पाप को नाश। जैसे चिंगारी अग्नि की, पड़ी पुराने घास।।

सरलार्थ:- इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं है। जिस ज्ञान की साधना कर्मयोग द्वारा (कर्म भी करो तथा भक्ति भी करो, इस प्रकार) शुद्ध अन्तःकरण वाला अपने आप ही कुछ समय में मोक्ष प्राप्ति कर लेता है।(गीता अध्याय 4 श्लोक 38)

  • अपनी इन्द्रियों का संयम करके तत्त्वज्ञान द्वारा श्रद्धावान मनुष्य सत्य भक्ति ज्ञान को प्राप्त है। उस सत्य साधना के ज्ञान को प्राप्त होकर अविलम्ब अर्थात् शीघ्र ही परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है।(गीता अध्याय 4 श्लोक 39)

  • विवेकहीन, श्रद्धाहीन और संशययुक्त मनुष्य कभी भी भ्रमित होकर विनाश को प्राप्त हो जाएगा अर्थात् जिसको पूर्ण ज्ञान नहीं होता, वह किसी के द्वारा भ्रमित होकर सत्य साधना त्यागकर शास्त्राविरुद्ध साधना करके अपना अनमोल मानुष जन्म नष्ट कर जाएगा। संशययुक्त आत्मा को न तो इस लोक में सुख है, न परलोक में क्योंकि शास्त्रानुकूल साधना से सुख होता है, उससे संसार में भी सुख मिलता है तथा मृत्यु उपरान्त सत्यलोक में भी सुखी होता है।(गीता अध्याय 4 श्लोक

  1. सूक्ष्मवेद में कहा है:-

कबीर, ज्ञान सम्पूर्ण हुआ, नहीं हृदय नहीं छिदाया। देखा देखी भक्ति का रंग नहीं ठहराया।।
कबीर, मां मूडूं उस सन्त की, जिससे संशय न जाय। काल खावें थोड़े संशय सबहन कूं खाय।।

  • हे धनंजय! जिस साधक ने तत्त्वज्ञान के आधार से सर्व शास्त्राविधिविरुद्ध भक्ति कर्मों को त्याग दिया है और जिसने तत्त्वज्ञान से सब संशयों को नाश कर दिया है। उस आत्मज्ञानी को कर्म नहीं बाँधते।(गीता अध्याय 4 श्लोक 41)

  • इसलिए अपने हृदय में अज्ञानजनित इस संशय को तत्त्वज्ञान रुपी तलवार से काटकर (योगम्) भक्ति साधना में (उत्तिष्ठ) खड़ा होना अर्थात् जाग जा (आतिष्ठ) और इस भक्ति में स्थित हो जा।(गीता अध्याय 4 श्लोक 42)

उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध हुआ कि जब तक पूर्ण सन्त (सतगुरु) नहीं मिलता, तब तक साधक का कल्याण सम्भव नहीं है।(9)

वाणी:- तीर्थ व्रत अरू सब पूजा। गुरु बिन दाता और न दूजा।।(10)
नौ नाथ चैरासी सिद्धा। गुरु के चरण सेवे गोविन्दा।।(11)

सरलार्थ:- चाहे कोई तीर्थ भ्रमण करता है, चाहे व्रत करता है, चाहे स्वयं या नकली गुरुओं से दीक्षा लेकर पूजा भी करता है, वह भक्ति कर्म कोई लाभ नहीं देता। गुरु (जो तत्त्वदर्शी है) जो सत्य साधना देते हैं जिससे इस लोक में तथा परलोक में सर्व सुख प्राप्त होता है। इसलिए कहा है कि गुरु के समान दाता (सुख व मोक्ष दाता) नहीं है। तीर्थ, व्रत तथा नकली गुरुओं द्वारा बताई भक्ति सुखदाई नहीं है। जितने भी महापुरुष या अवतार हुए हैं, उन्होंने गुरु बनाए हैं चाहे वो नाथ हुए हैं, चाहे 84 सिद्ध तथा अवतारधारी गोविन्द (श्री राम तथा श्री कृष्ण) हुए हैं, सबने गुरु धारण करके उनकी चरण सेवा की थी।(10-11)

वाणी:- गुरु बिन प्रेत जन्म सब पावै। वर्ष सहंस्र गरभ सो रहावै।।(12)

सरलार्थ:- जो साधक गुरु से दीक्षा न लेकर अपने आप साधना करते हैं, वे प्रेत योनि को प्राप्त होते हैं तथा हजारों वर्षों तक जन्म-मरण के चक्र में कष्ट उठाते रहते हैं। जिस कारण से सहंस्त्र (हजार) वर्ष तक गर्भ का कष्ट उठाते हैं।

उदाहरण: राधास्वामी पंथ के प्रवर्तक श्री शिवदयाल सिंह सेठ जी आगरा शहर के मोहल्ला पन्नी गली (उत्तर प्रदेश) में रहा करते थे। उनके जीवन चरित्र में लिखा है कि श्री शिवदयाल सिंह सन् 1861 से 1878 (17) वर्ष तक गुरु दीक्षा देते थे, परंतु उनका कोई गुरु नहीं था। 1878 में उनकी मृत्यु हो गई थी। श्री शिवदयाल सिंह जी हुक्का (तम्बाकु) पीते थे। उनकी एक बुक्की नाम की परम शिष्या (चेली) थी। मृत्यु के एक महीने पश्चात् श्री शिवदयाल सिंह जी प्रेत बनकर बुक्की के शरीर में प्रवेश करके अपने अन्य शिष्यों से बातें करते थे। अपने भाई सेठ प्रताप सिंह के प्रश्नों का उत्तर देते थे। पहले बुक्की हुक्का नहीं पीती थी, परंतु श्री शिवदयाल जी प्रेत बनकर बुक्की में प्रवेश होने के पश्चात् बुक्की हुक्का पीने लगी अर्थात् श्री शिवदयाल सिंह जी (राधास्वामी पंथ का प्रवर्तक) प्रेत बनकर बुक्की के शरीर में प्रवेश करके हुक्का पीता था। उसी पलंग (चारपाई) पर बैठकर हुक्का पीता था, जिस पर मृत्य से पहले बैठा करता था। यह प्रकरण पुस्तक जीवन चरित्र स्वामी जी महाराज में लिखा है जो आगरा से प्रकाशित है। प्रताप सिंह सेठ द्वारा लिखी है जो श्री शिवदयाल जी के छोटे भाई थे। परमात्मा कबीर जी की वाणी सिद्ध हुई।(12)

वाणी:- गुरु बिन दान पुण्य जो करई। मिथ्या होय कबहूँ नहीं फलहीं।।(13)
गुरु बिनु भर्म न छूटे भाई।कोटि उपाय करे चतुराई।।(14)

सरलार्थ:- पहले गुरु से ज्ञान समझें, फिर दीक्षा लेकर गुरुजी के बताए अनुसार दान-पुण्य करने से आध्यात्मिक सफलता मिलती है। गुरु बिन दान आदि कर्म करने से कोई लाभ नहीं होता। गुरु के बिना भ्रम (शंका) का नाश नहीं हो सकता चाहे व्यक्ति कितनी ही चतुरता करता रहे।(13-14)

गुरु के मिले कटे दुःख पापा। जन्म जन्म के मिटें संतापा।।(15)
गुरु के चरण सदा चित्त दीजै। जीवन जन्म सुफल कर लीजै।। (16)

सरलार्थ:- गुरु मिलने पर ही सर्व दुःख जो पाप के कारण होता है, वह समाप्त हो जाता है। जन्म-जन्म के संताप (दुःख) समाप्त हो जाते हैं। सदा गुरुजी के चरणों में ध्यान रखें। इस प्रकार साधना करके अपना मानव जीवन सफल करना चाहिए।(15-16)

वाणी:- गुरु भगता मम आतम सोई। वाके हृदय रहूँ समोई।।(17)
अड़सठ तीर्थ भ्रम भ्रम आवे। सो फल गुरु के चरनों पावे।।(18)

सरलार्थ:- परमात्मा ने स्वयं बताया है कि गुरु के भक्त मेरी आत्मा हैं, शेष काल के जाल में फँसकर काल की आत्मा हैं। जो मेरे कृपापात्र सन्त को गुरु बनाए हैं, मै उसके हृदय में रहता हूँ अर्थात् मेरा आशीर्वाद सदा गुरु भक्त पर बना रहता है।

अड़सठ प्रकार के तीर्थ स्थान माने गए हैं। पुराणों में कहा है कि अड़सठ तीर्थों का भ्रमण करने से मोक्ष प्राप्त होता है। परमेश्वर ने कहा है कि वैसे तो तीर्थ भ्रमण से कोई लाभ नहीं होता, हानि होती है क्योंकि तीर्थों पर जाने का निर्देश श्रीमद्भगवत गीता में नहीं है। जिस कारण से शास्त्रविरुद्ध साधना होने के कारण व्यर्थ है। (प्रमाण गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में) फिर भी यदि आप मानते हैं कि 68 तीर्थों पर जाने से मोक्ष लाभ है तो 68 तीर्थों का भ्रमण करने में पुराने समय में लगभग एक वर्ष लगता था। वर्तमान में तीन महीने तथा तीन-चार लाख रुपये का गाड़ी खर्च होता है। 68 तीर्थों का फल पूर्ण सन्त के चरणों की धूल (चरणामृत) से ही आप जी को प्राप्त हो जाएगा, परंतु गुरु पूरा हो। इसलिए गुरु की महिमा अपार तथा लाभदायक है।(17-18)

वाणी:- दशवाँ अंश गुरु को दीजै। जीवन जन्म सफल कर लीजै।।(19)
गुरु बिन होम यज्ञ नहिं कीजे। गुरु की आज्ञा माहिं रहीजे।।(20)

सरलार्थ:- अपनी कमाई का दसवां अंश अर्थात् 10ः प्रतिशत दान गुरुजी को करें और अपना मानव जीवन सफल करें। गुरु के बिना कोई भी धार्मिक अनुष्ठान (होम यज्ञ = हवन यज्ञ आदि) नहीं करना चाहिए। गुरुजी की आज्ञा का सदा पालन करना चाहिए।(19-20)

वाणी:- गुरु सुरतरु सुरधेनु समाना। पावै चरन मुक्ति परवाना।।(21) तन मन धन अरपि गुरु सेवै। होय गलतान उपदेशहिं लेवै।।(22)

सरलार्थ:- पौराणिक कथाओं में वर्णन है कि स्वर्ग में कई सुरतरु (देववृक्ष) हैं। वृक्ष के नीचे बैठकर मन इच्छा वस्तु प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार स्वर्ग में सुरधेनु (कामधेनु = देवताओं की गाय) है। जिसके पास जाकर जो भी मनोकामना करते हैं, वह पूरी कर देती है। परमात्मा कबीर जी कहते हैं कि आपके सुरतरु तथा सुरधेनु (कामधेनु) तो स्वर्ग में हैं। आपकी साधना शास्त्राविधि त्यागकर मनमाना आचरण होने से व्यर्थ है। (प्रमाण: गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में) आप जी स्वर्ग ही नहीं जा सकते। जो सुविधा पुराणों में बताई है, वे स्वर्ग में ही मिलती हैं। फिर पृथ्वी पर तो साधक भूखा-प्यासा तथा दुःखी ही रहा। गुरु (पूर्ण सतगुरु = तत्त्वदर्शी सन्त) तो पृथ्वी पर सुरतरु (देव वृक्ष) तथा देवधेनु (काम धेनु) अर्थात् सुरधेनु है जो इस लोक में तथा परलोक में दोनों स्थानों पर सर्व सुख प्रदान करता है। गुरु के चरणों में मुक्ति का प्रवाना अर्थात् मोक्ष मन्त्र भी प्राप्त होता है।

गुरु जी का उपदेश उस समय लेना चाहिए जब आप जी उनके ज्ञान से पूर्ण रुप से संतुष्ट हो जायें। फिर आप जी गलताना अर्थात् गुरुजी पर मस्त होकर न्यौछावर हो जाओगे। इसलिए कहा है कि गुरुजी से गलताना अर्थात् पूर्ण रुप से समर्पित होकर मस्त होकर उपदेश लें और अपना तन-मन तथा धन भी सतगुरु को अर्पण कर दें अर्थात् सब कुछ परमात्मा का है, यह भाव मन में उठे।(21-22)

वाणी:- सतगुरुकी गति हृदय धारे। और सकल बकवाद निवारै।।(23)
गुरु के सन्मुख वचन न कहै। सो शिष्य रहनिगहनि सुख लहै।।(24)

सरलार्थ:- जो ज्ञान सतगुरु जी बतायें, उसी के अनुसार भक्ति-साधना करनी चाहिए तथा अन्य जो व्यर्थ की भक्ति साधना तथा ज्ञान व नाचना-गाना, माँस-मदिरा सेवन, तम्बाकू सेवन, चोरी-जारी दुराचार करना आदि-आदि छोड़ दे। गुरु जी से वाद-विवाद नहीं करना चाहिए। वही शिष्य रहनी (जो वस्तु गुरु ने मना की है, उनका परहेज रखना) गहनी (गूढ़ ज्ञान तथा उससे प्राप्त सुख) का आनन्द प्राप्त करता है। भावार्थ है कि जो शिष्य गुरु के सामने मर्यादा में रहता है, वह भगवान की भक्ति का पूर्ण लाभ प्राप्त करता है।(23-24)

वाणी:- गुरु से शिष्य करै चतुराई। सेवा हीन नर्क में जाई।।(25)
शिष्य होय सरबस नहीं वारै। हिये कपट मुख प्रीति उचारे।।(26)
जो जिव कैसे लोक सिधाई। बिन गुरु मिले मोहे नहिं पाई।।(27)

सरलार्थ:- जो शिष्य गुरु के साथ हेराफेरी (चतुराई) करता है। उसकी सेवा (भक्ति) नष्ट हो जाती है। वह नरक का अधिकारी होता है। जो दीक्षा लेने के पश्चात् भी सतगुरु के प्रति समर्पित नहीं होता और मुख से प्यारा बोलता है और दिल में गुरु के प्रति दोष रखता है। वह भी सतलोक कैसे जा सकता है? क्योंकि गुरु के मिले बिना अर्थात् गुरु के ऊपर पूर्ण विश्वास तथा श्रद्धा लगाए हुए बिना मुझे (परमात्मा को) प्राप्त नहीं हो सकता।(25-26-27)

वाणी:- गुरु से करै कपट चतुराई। सो हंसा भव भरमें आई।।(28)
गुरु से कपट शिष्य जो राखै। यम राजा के मुगदर चाखै।।(29)

सरलार्थ:- जो हंस (भक्त) गुरु जी से कपट युक्त व्यवहार करता है, वह हंस (भक्त) संसार में पुनः पशु-पक्षियों के जीवन प्राप्त करके कष्ट उठाता भटकता रहता है। जो शिष्य गुरु से कपटयुक्त बर्ताव करता है, मृत्यु उपरान्त यमराजा (यमराज) उसको मुगदरों (मोटे लट्ठों से) से पीटता है।(28-29)

वाणी:- जो जन गुरु की निंदा करई। सूकर श्वान गरभमें परई।।(30)
गुरु की निंदा सुने जो काना। ताको निश्चय नरक निदाना।।(31)
अपने मुख निंदा जो करई। परिवार सहित नर्क में पड़ही।।(32)

सरलार्थ:- जो शिष्य गुरु जी की निन्दा करता है, उसकी भक्ति समाप्त हो जाती है। फिर शुकर (सूअर) तथा श्वान (कुत्ते) के जन्म प्राप्त करता है। जो शिष्य गुरु जी की निन्दा अपने कानों से सुनता है उसको नरक प्राप्ति होती है, यह निश्चय कर मानें।

स्पष्टीकरण: यदि कोई व्यक्ति आपके गुरूदेव जी की निन्दा कर रहा है और आप उसके पास बैठे हैं। आपको लग रहा है कि यह व्यक्ति जो कह रहा है, हो सकता है यह दोष गुरुजी में हो तो आपने वह निन्दा अपने कानों सुन ली। आपकी भक्ति नष्ट हो गई। उस शिष्य को चाहिए अपनी गलती माने और पुनः उपदेश प्राप्त करे, फिर किसी सिरफिरे की बकवास सुनकर गुरु में दोष न देखे। यदि कोई व्यक्ति आपके गुरु जी की निन्दा करता है और आप वहाँ बैठे हो। आपको लगे कि यह व्यर्थ की बकवास कर रहा है। हमसे अधिक यह व्यक्ति हमारे गुरुजी के विषय में कैसे जान सकता है तो उस शिष्य ने निन्दा अपने कानों नहीं सुनी। उस शिष्य की भक्ति सुरक्षित है। वह पक्का भक्त है।

जो शिष्य होकर अपने मुख से गुरु जी की निन्दा करता है तो वह पूरे परिवार सहित नरक में गिरता है क्योंकि उससे सुनी मिथ्या बातों को उसका परिवार जगह-जगह जाकर सुनाएगा। जिस कारण से अन्य भोली-भाली जनता भी उस सन्त से घृणा (नफरत) करने लगेंगे और उस परम सन्त से दीक्षा न ले सकेंगे। जिस कारण से अनमोल जीवन नष्ट कर जायेंगे। अन्य व्यक्तियों को परमात्मा से दूर करने का पाप भी उस परिवार को लगेगा। जिस कारण से वह गुरु की निन्दा करने वाला शिष्य अपना जीवन तो नष्ट करता ही है, साथ में अपने परिवार को भी नरक का अधिकारी बनाता है।(30-31-32)

वाणी:- गुरु को तजै भजै जो आना। ता पशुवा को फोकट ज्ञाना।।(33)
गुरु से बैर करै शिष्य जोई। भजन नाश अरु बहुत बिगोई।।(34)

सरलार्थ:- जो शिष्य अपने गुरु से अधिक किसी अन्य सन्त या भक्त में आस्था रखता है तो उस पशु को कोई ज्ञान नहीं है क्योंकि गुरु के प्रति परमात्मा जैसा भाव रहना चाहिए। हमने सत्यलोक में भी यही गलती की थी। हम अपने मालिक को छोड़कर इस काल ब्रह्म में आस्था रखने लगे थे। जिस कारण से हम पतिव्रत धर्म (एक मालिक के अतिरिक्त अन्य को न चाहने वाली स्त्राी को पतिव्रता कहा जाता है) से गिर गए और परमेश्वर जी ने हमारे को दिल से त्याग दिया और हम इस गन्दे लोक में आ गिरे। इसी प्रकार गुरुजी से अधिक किसी को स्थान अपने हृदय में न दें, सत्कार सबका करें। जो शिष्य गुरुजी से शत्रुता करता है। उसकी भक्ति नष्ट हो जाती है और भी बहुत विनाश होता है।(33-34)

वाणी:- पीढ़ी सहित नरकमें परिहै। गुरु आज्ञा शिष्य लोप जो करि है।।(35)
चेलो अथवा उपासक होई। गुरु सन्मुख ले झूठ संजोई।।(36)
निश्चय नर्क परै शिष्य सोई। वेद पुराण भाषत सब कोई।।(37)

सरलार्थ:- जो शिष्य गुरु की आज्ञा को अनदेखा करता है। वह पीढ़ी सहित नरक में गिरता है अर्थात् पूरे वंश को डुबो देता है। चेला (जो घर त्यागकर संत वेश धारण करके गुरु के साथ आश्रम में रहता है। उसको सन्तजन चेला कहते हैं) हो अथवा उपासक (जो ग्रहस्थ आश्रम में रहकर साधना करता है व दीक्षा लेकर गुरुजी के बताए भक्ति कर्म को करता है, उसे उपासक कहा है) हो, जो गुरुजी के आगे झूठ बोलता है। वह शिष्य नरक में अवश्य गिरता है। यह प्रमाण वेदों तथा पुराणों में भी लिखा है अर्थात् वेद-पुराण भी यही कहते (भाषत) हैं।(35-36-37)

वाणी:- सन्मुख गुरु की आज्ञा धारै। अरू पिछे तै सकल निवारै।।(38)
सो शिष्य घोर नर्कमें परिहै। रुधिर राध पीवै नहिं तरि है।।(39)
मुख पर वचन करै परमाना। घर पर जाय करै विज्ञाना।।(40)
जहाँ जावै तहाँ निंदा करई। सो शिष्य क्रोध अग्नि में जरई।।(41)
ऐसे शिष्य को ठाहर नाहीं। गुरु विमुख लोचत है मनमाहीं।।(42)
बेद पुराण कहै सब साखी। साखी शब्द सबै यों भाखी।।(43)
मानुष जन्म पाय कर खोवै। सतगुरु विमुखा जुगजुग रोवै।।(44)

सरलार्थ:- गुरुजी के सामने तो हाँ जी-हाँ जी करता है और घर पर जाकर सब व्यर्थ की बातें बताता है। वह शिष्य महाकष्टदायक घोर (भंयकर) नरक में गिरता है। इस नरक कुण्ड में रुधिर (खून) तथा राध (मवाद) पीता है, कभी भवसागर से पार नहीं हो सकता। गुरु के सामने तो कहता है कि गुरुजी आप सत्य कह रहे हैं, परंतु घर पर जाकर गुरु की बातों में त्रुटि देखता है। अपने को विद्वान सिद्ध करता है। जहाँ भी जाता है, गुरुजी की निन्दा करता है। वह शिष्य क्रोध रुपी अग्नि में सदैव जलता रहता है। ऐसे शिष्य को कोई ठाहर (सहारा) परमेश्वर का नहीं मिलता। गुरुजी से विमुख (गुरु से उल्टा चलना) मन-मन में लोचता (तड़फता) रहता है। वेदों के मन्त्रा तथा पुराणों के श्लोक भी यही कहते हैं तथा महापुरुषों की वाणी साखी (दोहे) तथा शब्द भी यही कहते हैं। जो शिष्य गुरु से विमुख हो जाता है, वह व्यक्ति युगों-युगों रोता रहता है। अनमोल मनुष्य जीवन को प्राप्त करके गुरु से दूर होकर अर्थात् गुरु की निन्दा करके गुरुद्रोही होकर नष्ट कर देता है।(38-39-40-41-42-43-44)

वाणी:- गरीब, गुरु द्रोही की पैड़ पर, जे पग आवै बीर।
चैरासी निश्चय पड़ै, सतगुरु कहैं कबीर।।(45)

सरलार्थ:- संत गरीबदास जी ने अपने गुरु भगवान कबीर जी को साक्षी बनाकर कहा है कि यदि गुरुद्रोही की पैड़ पर किसी भक्त-भाई का पैर भी रखा जाता है तो वह 84 लाख प्रकार के प्राणियों के शरीरों में कष्ट उठाएगा। फिर गुरुद्रोही की तो और भी बुरी दशा होगी। पैड़ (पैर का मिट्टी पर चिन्ह) पर किसी का पैर रखा जाता है और वह भी 84 लाख योनियों में भटकता है तो जो गुरु के साथ शत्रुता करता है या निन्दा करता है, वह गुरु द्रोही कहलाता है, उसकी कितनी बुरी दशा होगी? यह आसानी से जान सकते हैं।

भावार्थ: पैड़ पर पैर रखा जाना का अर्थ केवल यह नहीं है कि किसी रास्ते से चला जा रहा हो और उसके पैर के चिन्ह हो, उन पर किसी का पैर रखा जाने से नरक में व 84 लाख योनियों में गिर जाएगा। नहीं, भावार्थ यह है कि गुरुद्रोही गुरु जी की निन्दा कर रहा है और अन्य शिष्य उसकी हाँ में हाँ मिलाए, उसने गुरुद्रोही के पैर पर पैर रख दिया। उस शिष्य का नाम खण्डित हो जाएगा, भक्ति नष्ट हो जाएगी। जिस कारण से गुरुद्रोही की हाँ में हाँ मिलाने वाला 84 लाख प्रकार की योनियों में कष्ट उठाता है और गुरुद्रोही को तो कितना कष्ट उठाना पड़ेगा, उसका तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता।(45)

वाणी:- कबीर, जान बूझ साची तजै, करैं झूठे से नेह।
जाकि संगत हे प्रभु, स्वपन में भी ना देह।।(46)

सरलार्थ:- सूक्ष्मवेद में परमेश्वर कबीर जी की वाणी में भी कहा है कि शिष्य वही होता है जो गुरुजी को तथा उनके भक्ति ज्ञान को उत्तम मानकर दीक्षा लेता है। फिर लालच या अभिमानवश गुरु जी को त्यागकर चला आता है जहाँ उसको सम्मान मिलता है। जो कुछ दान कर देता है, नकली गुरु उसको विशेष सम्मान देते हैं। जिस कारण से वह मंदभागी व्यक्ति गुरु जी को त्यागकर झूठे गुरु तथा झूठे ज्ञान को स्वीकार कर लेता है। परमात्मा कबीर जी ने कहा है कि हे परमात्मा! ऐसे दुष्ट व्यक्ति के दर्शन जगत में तो बुरे होते ही हैं, परंतु स्वपन में भी दर्शन नहीं हों अर्थात् ऐसे व्यक्ति का संग स्वपन में भी न देना।(46)

वाणी:- तातै सतगुरु सरना लीजै। कपट भाव सब दूर करीजै।।(47)
योग यज्ञ जप दान करावै। गुरु विमुख फल कबहुँ न पावै।(48)

सरलार्थ:- इसलिए गुरुजी की शरण प्राप्त करें, दीक्षा लें और मन में कपट नहीं रखना चाहिए। छल-कपट को छोड़कर दीक्षा लेनी चाहिए। यदि गुरु से विमुख होकर कोई यज्ञ, दान, जप करता-कराता है तो उसको कोई आध्यात्मिक लाभ प्राप्त नहीं होता।(47-48)

पृष्ठ 43 सुमिरन बोध पर:-

गुरू से दीक्षा लीजे भाई। सदा गुरू की कीजे सेवकाई।।
दीक्षा लेई चले जो आडा। सात जन्म सो पावई पाडा (काटड़ा)।।
सतगुरू की जो अदब (शर्म) ना राखै। ताको नरक यह शास्त्रा भाखै।।
गुरू संग आडा टेडा बोलै। श्वान (कुत्ता) होके घर-घर डोलै।।
गुरू संग ज्ञान गर्ब दिखावै। कोटि जन्म शूकर (सूअर) के पावै।।
साखी-कबीर गुरू सीढ़ी (मर्यादा) से उतरे, शब्द (नाम) बिहूना (रहित) होय।
ताको काल घसीटही, राख सकै ना कोय।।

भावार्थ:- गुरूदेव से दीक्षा लेकर आजीवन गुरू जी की सेवा करो, अपना कल्याण कराओ। जो दीक्षा लेकर मर्यादा तोड़ देता है। वह अगले जन्म में भैंस के काटड़े के रूप में जन्म लेगा। जो गुरू जी से आडा-टेढ़ा बोलता है, वह पशु बनेगा।

जो शिष्य गुरू की शर्म (लाज) नहीं करता, शास्त्रा बताते हैं कि वह नरक में जाता है। जो गुरू के साथ आडा-टेढ़ा बोलता है, वह कुत्ते का जन्म पाता है। घर-घर भौंकता हुआ भटकता है।

जो गुरू के सामने यह सिद्ध करने की कुचेष्टा करे कि मैं अधिक ज्ञानवान हूँ, वह करोड़ों जन्म सूअर के भोगता है।

जो शिष्य गुरू जी की सीढ़ी यानि भक्ति मार्ग से उतर जाता है यानि गुरू जी द्वारा बताई भक्ति छोड़ देता है, उसका नाम समाप्त हो जाता है।उसको काल घसीटकर ले जाएग, उसको कोई नहीं छुड़वाएगा।

गुरू का ज्ञान मेटि मत थापी। तीन लोक में बड़ा वह पापी।।
गुरू से ऊँचा चढ़ि कर बैठे। सातवें कुण्ड नरक में पैठे।।
गुरू से उलटा बचन सुनावै। सात जन्म कोढ़ी के पावै।।
गुरू को उलट सुनावै बैना। सात जन्म ताके फूटे नैना।।
साखी-कबीर शिव पूजा में बैठि के, गुरू से कियो अभिमान।
काक भुशण्ड शिव शापते, पड़यो नरक की खान।।

सुमिरन बोध पृष्ठ 44 पर:-

गुरू निंदा जाके मुख होई। ताको मुख ना देखो कोई।।
गुरू निदंक जब वचन सुनावै। भक्त कान मूंद के जावै।।

सुमिरन बोध पृष्ठ 54 पर:-

गुरू सतपद भज अमृतबानी। गुरू बिन मोक्ष नहीं रे प्रानी।।
गुरू हैं आदि अनादि विख्याता। गुरू हैं मोक्ष मुक्ति के दाता।।
अड़सठ तीर्थ भ्रम-भ्रम आवै। सो फल गुरू के चरणा पावै।।
गुरू को तजै भजै जो आना। ता पशुवा को फोकट ज्ञाना।।
गुरू पारस परसै जो कोई। लोहे तै जैसे कंचन होई।।
शुक (सुखदेव) गुरू किये जनक विदेही। वो भये गुरू के परम स्नेही।।
नारद धु्रव, प्रहलाद पढ़ाये। भक्ति हेत जिन भजन कराए।।
ब्रह्मा गुरू अग्नि ऋषि कीन्हा। आगम निगम की पैड़ी चीन्हा।।
वशिष्ठ मुनि गुरू किये रघुनाथा। पाये दर्शन भये सुनाथा।।
कृष्ण गये दुर्वासा शरणा। पाये भक्ति तारन तरना।।
नारद उपदेश धीमर से पाये। चैरासी से तुरंत बचाये।।
साखी-कबीर राम कृष्ण से कौन बड़ा, तिनहु भी गुरू कीन्ह।
तीन लोक के वे धनी, गुरू आगै आधीन।।

कबीर सागर के अध्याय ‘‘सुमिरन बोध’’ का सारांश सम्पूर्ण हुआ।

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