ब्रह्म का साधक ब्रह्म को तथा पूर्ण ब्रह्म का साधक पूर्ण ब्रह्म को ही प्राप्त होता है
गीता अध्याय 8 श्लोक 5 से 10 व 13 तथा गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में निर्णायक ज्ञान है। गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में कहा है कि मुझ ब्रह्म की साधना का तो केवल एक ¬ अक्षर है जो उच्चारण करके जाप करने का है। जो साधक अंतिम स्वांस तक जाप करता है वह मेरी परम गति को प्राप्त करता है। (अपनी परम गति को गीता ज्ञान दाता प्रभु ने अध्याय 7 श्लोक 18 में अति अनुत्तम अर्थात् अति घटिया कहा है।)
गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में कहा है कि पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति का केवल तीन मंत्र ¬ तत् सत् के जाप का ही निर्देश है। (जिसमें ¬ जाप ब्रह्म का है, तत् यह सांकेतिक है जो परब्रह्म का जाप है तथा सत् यह भी सांकेतिक है जो पूर्णब्रह्म का जाप है)। उस पूर्ण परमात्मा के तत्व ज्ञान को तत्वदर्शी संत ही जानता है, उससे प्राप्त कर। मैं (गीता ज्ञान दाता क्षर पुरुष) नहीं जानता।
गीता अध्याय 8 श्लोक 6 में कहा है कि यह विधान है कि अंत समय में साधक जिस भी प्रभु का नाम जाप करता हुआ शरीर त्याग कर जाता है उसी को प्राप्त होता है।
गीता अध्याय 8 श्लोक 5 से 7 में कहा है कि जो अंत समय में मेरा स्मरण करता हुआ शरीर त्याग कर जाता है वह मेरे (ब्रह्म के) भाव में भावित रहता है। फिर कभी मनुष्य जन्म होता है तो वह साधक अपनी साधना ब्रह्म से ही प्रारम्भ करता है। उसका स्वभाव वैसा ही हो जाता है। (इसी का प्रमाण गीता अध्याय 16- 17 में भी है कि जो साधक पूर्व जन्म में जैसी भी साधना करके आया है अगले जन्म में भी स्वभाववश वैसी ही साधना करता है)।
गीता अध्याय 8 श्लोक 7 में कहा है कि सब समय में मेरा स्मरण कर तथा युद्ध भी कर निःसंदेह मुझ को ही प्राप्त होगा।
गीता अध्याय 8 श्लोक 8 से 10 तक में स्पष्ट किया है कि जो साधक अनन्य मन से परमेश्वर के नाम का जाप करता है वह सदा उसी को स्मरण करने वाला (परम दिव्यम् पुरुष याति) उस परम दिव्य पुरुष अर्थात् परमेश्वर (पूर्णब्रह्म) को प्राप्त होता है। (अध्याय 8 श्लोक 8)।
जो साधक अनादि सर्व के नियन्ता सूक्ष्म से अति सूक्ष्म सबके धारण पोषण करने वाले सूर्य की तरह स्वप्रकाशित अर्थात् तेजोमय शरीर युक्त, अज्ञान रूप अंधकार से परे (कविम्) कविर्देव सच्चिदानन्दघन परमेश्वर का स्मरण करता है। (अध्याय 8 श्लोक 9)
वह भक्ति युक्त साधक तीन मंत्र के जाप की साधना की शक्ति(नाम जाप की कमाई) से अंत समय में शरीर त्याग कर जाते समय त्रिकुटी पर पहुंच कर अभ्यासवश सार नाम का स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप अर्थात् तेजोमय अर्थात् साकार (परम पुरुष) परमेश्वर को ही प्राप्त होता है। (अध्याय 8 श्लोक 10)