अध्याय ज्ञान सागर का सारांश
कबीर सागर का प्रथम अध्याय ‘‘ज्ञान सागर‘‘ है। वास्तव में प्रथम अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ होना चाहिए। यह जिल्द बाँधने वालों से गलती हुई है और वर्तमान तक चली आ रही है। हमें अमृत ज्ञान ग्रहण करना है, वह करते हैं।
इस ‘‘ज्ञान सागर‘‘ अध्याय में परमेश्वर कबीर जी ने अपने निवास स्थान ‘‘सत्यलोक‘‘ तथा उसमें रहने वाले हंस आत्माओं की सतलोक में विशेष स्थिति बताई है जो काल ब्रह्म के लोक में नहीं है।
अथ ज्ञान सागर प्रारम्भ (सारांश)
चौपाई (पृष्ठ 1 से कुछ वाणियाँ)
मुक्ति भेद मैं कहूं विचारी। ता कहं नहीं जानत संसारी।।
बहु आनन्द होत तिहिं ठाऊं। संशय रहित अमरपुर गाऊँ।।
(पृष्ठ 2)
तहंवा रोग शोग नहीं कोई। क्रीड़ा विनोद करें सब कोई।।
चंद्र न सूर दिवस नहीं राती। वर्ण भेद नहीं जाति-अजाति।।
तहंवा जरा-मरण नहीं होई। बहुत आनन्द करें सब कोई।।
पुष्पक विमान सदा उजियारा। अमृत भोजन करत अहारा।।
काया सुंदर ताहि प्रमाना। उदित भये मानो षोड़श भाना।।
इतनौं एक हंस उजियारा। शोभित-शोभित सबै जनु तारा।।
विमल बांस तहां बिगसाई। योजन चार लौं सुबांस उड़ाई।।
सदा मनोहर छत्र सिर छाजा। बूझ न परै रंक और राजा।।
नहीं तहां काल वचन की खानी। अमृत वचन बोलत भल बानी।।
आलस निन्द्रा नहीं प्रकाशा। बहुत प्रेम सुं सुख करै विलासा।।
साखी:- अस सुख है हमारे घर कह कबीर समुझाय।
सत शब्द को जानि के अस्थिर बैठे जाय।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने अपने घर यानि सत्यलोक का वर्णन करते हुए बताया है कि मैं जो पूर्ण मोक्ष मार्ग का भेद बता रहा हूँ। उसको संसार में कोई नहीं जानता। मेरे द्वारा बताए गए मोक्ष मंत्र की साधना करने वाला उस अमरपुर अर्थात् अविनाशी स्थान (सनातन परम धाम) को प्राप्त हो जाता है। (जिसका वर्णन गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में है।) वहाँ पर बहुत आनन्द है। वहाँ पर अमर शरीर प्राप्त होता है जिसमें कभी कोई रोग नहीं लगता। वहाँ पर कोई शोक (चिंता) नहीं है। सर्व मोक्ष प्राप्त आत्माऐं आनन्द करते हैं। उस सत्यलोक में कोई चाँद-सूरज तथा दिन-रात नहीं हैं। वहाँ पर चार वर्ण (ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रीय, शुद्र) नहीं हैं। इसलिए वहाँ जाति भेदभाव नहीं है। हमारे अमरलोक में जरा (वृद्व अवस्था) तथा मरण (मृत्यु) नहीं होता।
{गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जो साधक जरा यानि वृद्ध अवस्था तथा मरण (मृत्यु) से मुक्ति प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है, जो इस संसार के किसी वैभव की इच्छा नहीं रखते, वे तत् ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को तथा सर्व कर्मों को जानते हैं। (गीता अध्याय 7 श्लोक 29)
गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में अर्जुन ने प्रश्न किया कि तत् ब्रह्म क्या है? आध्यात्म, अधिभूत किसे कहते हैं?
इस प्रश्न का उत्तर गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म (क्षर पुरूष) ने गीता अध्याय 8 के ही श्लोक 3 में दिया है। कहा है कि वह परम अक्षर ब्रह्म है। इसी के विषय में गीता अध्याय 8 के ही श्लोक 8, 9, 10, 19 तथा 20, 21, 22 में और अध्याय 18 श्लोक 46ए 61.62 आदि-आदि अनेकों श्लोकों में वर्णन किया है। इसी मुक्ति का वर्णन गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में भी है।}
परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि वहाँ पर वृद्ध अवस्था यानि बुढ़ापे का कष्ट नहीं है। सदा युवा अवस्था रहती है, मृत्यु नहीं होती। सर्व सतलोक निवासी आनन्द से रहते हैं। जिस पुष्पक विमान का वर्णन रामायण में आता है कि जिस समय श्री राम जी लंका के राजा रावण पर विजय प्राप्त करके, रावण को मारकर सीता जी के साथ पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या नगरी आए थे। ऐसे पुष्पक विमान सत्यलोक में प्रत्येक हंस (सत्यलोक में जीव नहीं हंस कहा जाता है) के महल के सामने खड़ा है। जब चाहें उस पर बैठकर घूम सकते हैं। उस सत्यलोक में सदा प्रकाश रहता है। वह सतलोक स्वप्रकाशित है। करोड़ों सूर्यों जितना प्रकाश उस सत्यलोक की धरती का अपना है जिसमें गर्मी नहीं है। इसलिए वहाँ सूर्य की आवश्यकता नहीं है और इसी कारण से दिन-रात भी नहीं हैं। सत्यलोक में प्रत्येक हंस (मानव) के शरीर का सोलह सूर्यों जितना प्रकाश है। यहाँ पर उन हंसों का वर्णन है जो सत्य पुरूष के साथ वाले क्षेत्र में निवास करते हैं। वहाँ केवल नर हैं। जैसा कि सत्यलोक को तीन भागों में बाँटा है। दूसरे भाग में नर तथा नारी रूप में परिवार के साथ हंस रहते हैं। वहाँ पर नर तथा नारी के शरीर का प्रकाश तो सोलह सूर्यों के प्रकाश के समान है, मनोहर छवि है, परंतु विकार किसी में व्याप्त नहीं होते।
अमृत भोजन सब सतलोकवासी करते हैं। सबकी सुंदर काया यानि सुंदर शरीर है जैसे सोलह सूर्य शरीर में उदय हो गए हैं। एक हंस यानि सत्यलोक में मानव के शरीर की इतनी (सोलह सूर्यों जितनी) शोभा है। वहाँ सत्यलोक तथा सत्यपुरूष के प्रकाश में प्रत्येक हंस (देव स्वरूप आत्माऐं) ऐसे दिखाई देते हैं जैसे तारे होते हैं यानि परमेश्वर के शरीर के प्रकाश के सामने थोड़े प्रकाशयुक्त परंतु चमक फिर भी दिखाई देती है। वहाँ पर सबको दिव्य नेत्र प्राप्त होते हैं जो सूक्ष्म से सूक्ष्म को भी देख लेते हैं। सत्यलोक में बहुत अच्छी सुगंध सदैव उठती रहती है। उसकी महक चार योजन यानि 16 कोस तक है। (एक योजन 4 कोस का होता है और एक कोस 3 कि.मी. का होता है, इस प्रकार एक योजन 12 कि.मी. का है।)
सत्यलोक में प्रत्येक देवात्मा (हंस-हंसनी) के सिर के ऊपर दैवीय शक्ति से अपने आप छत्र शोभित रहता है। यदि छत्र लगाना चाहें तो इच्छा करते ही छत्र सिर पर होता है। जब न चाहें तो सिर से हटकर अपने स्थान पर चला जाएगा जो महल में ही होता है। वहाँ पर केवल एक सत्यपुरूष राजा है। अन्य सब प्रजा है। प्रजाजन की शोभा पृथ्वी के राजाओं से असँख्यों गुणा अधिक है। वहाँ कोई रंक (निर्धन) और राजा का अंतर नहीं है। वहाँ पर काल ब्रह्म के वचन यानि भाषा वाली जनता नहीं है जहाँ अपने से निर्बल को कुवचन बोल देते हैं, डाँट लगाते हैं। वहाँ सत्यलोक (सतलोक) में आलस तथा निन्द्रा किसी को नहीं आती, सब बहुत प्रेम से सुख भोगते हैं।
कबीर परमेश्वर जी ने सेठ धर्मदास जी को बताया कि हमारे घर यानि सतलोक में ऐसा सुख है, मैं तेरे को समझाकर कह रहा हूँ। मेरे पास वह सत्य शब्द (सतनाम) है जिसको समझकर स्मरण करके अमर लोक में स्थाई निवास प्राप्त करता है।
अध्याय ज्ञान सागर का सारांश लिखा जा रहा है:- पृष्ठ 2 से 56 तक पुराणों और रामायण तथा श्रीमद् भागवत सुधासागर वाला ज्ञान है। श्री राम की जीवनी, श्री कृष्ण लीला तथा पांडव यज्ञ जो सुपच सुदर्शन जी से संपूर्ण हुआ था, का संक्षिप्त सटीक वर्णन है।
कुछ विशेष जानने योग्य:-
परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को सर्व पुराणों, रामायण, गीता तथा सुधा सागर का ज्ञान इसलिए बताया कि धर्मदास यह न समझे कि यह कबीर अपने-अपने ज्ञान को बता रहा है जिसका कोई प्रमाण नहीं और कबीर जी को गीता, पुराण, रामायण, सुधासागर (जिसको भागवत कहते हैं) का ज्ञान नहीं है क्योंकि ये सब संस्कृत में लिखी हैं और कबीर जी अशिक्षित हैं। परमेश्वर कबीर जी के मुख से सत्यज्ञान सुनकर धर्मदास जी परमेश्वर कबीर जी के मुख कमल की ओर देखता ही रह गया। मन में यह निश्चय हो गया कि ये कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है। पृष्ठ 2 से 56 तक के प्रकरण में एक प्रसंग आया है।